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________________ प्रस्तावना एक लोकोक्ति है - दुर्जनं प्रथमं वन्दे, सज्जनं तदनन्तरम् । "कडवे सच' इस कृति की निर्मिति में सज्जनों से अधिक वे लोग कारण बने हैं जो ज्ञात/अज्ञात भावों से साधुओं के व्रतों को दूषित करने में एवं उन्हें सुखशील बनाकर उनके चारित्र को नष्ट करने का दुष्कर्म कर रहे हैं। पंचम काल की दुहाई देकर साधु को मोबाईल, नॅपकीन, अपने फोटो आदि रखने/बाँटने की प्रेरणा देना, आहार के समय गरम वस्तुएँ बनाने के लिए गॅस जलाना अथवा फल काटना, अंजुलि छोड़ कर बैठने के बाद भी सौंफ आदि देने का प्रयत्न करना, विधि नहीं मिलने पर थोड़ी देर बाद या सामायिक के बाद दोपहर में पुन: दूसरी बार आहार के निकलने के लिए दबाव लाना, आहार के बाद लौंग, काड़ी आदि से दाँतों में लगे अन्नकण निकालने अथवा नमक या मंजन से दाँत साफ करने तथा पानी, नॅपकीन से शरीर पोछने की जिद करना, अकारण घी-तेल आदि की मालिश अस्नान मूलगुण का भंग होने से महापाप है ऐसा शास्त्रवचन दिखाने पर भी तेल से मालिश करने की जिद-जबरदस्ती करना आदि बाते अब आम बन चुकी हैं । मूढ़ लोग इन शास्त्रविरोधी दुष्कृत्यों को ही वैयावृत्ति समझते हैं। वे इस बात को नहीं समझते कि "हमारी भावना है" ऐसा कहने से किसी को साधुओं के व्रतों में दोष लगाने का अधिकार तो नहीं मिलता। वैयावृत्त्य का वास्तविक अर्थ है चारित्रपालन में सहायता करना। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में आ. समन्तभद्र "दान वैयावृत्यम्" (१११) ऐसी व्याख्या करते हुए आहारदान, औषधदान, उपकरणदान तथा वसतिकादान के भेद से चार प्रकार का वैयावृत्त्य प्रतिदिन करने के लिए कहते हैं । तथा चारित्रसार में भी कहा है - "विपरीत परिणाम तथा विपरीत क्रियाओं से निवृत्त होने का उपदेश देना वैयावृत्त्य है। परन्तु घी-तेल लगाए बिना जिन्हें वैयावृत्ति करने की 'मजा' ही नहीं आती ऐसे लोग आहारदान आदि अतिशय श्रेष्ठ कार्यों में अनेक बहाने बनाते हैं, क्वचित् एक-दो दिन चौका लगाने मात्र से अपनी इति-कर्तव्यता समझ लेते हैं। कड़वे सच ...... . . . . . . . . . ... iv प्रत्येक मनुष्य को पद्मनन्दि पञ्चविंशति: में कथित निम्न बात पर गंभीरता से विचार करना चाहिए - "जो प्रतिदिन अतिथियों को आहारदान नहीं देता है, उससे तो वह कौआ अच्छा है जो कही पर थोड़ी सी खुरचन (अन्न के कुछ कण) देखता है तो कांव-काव करके अन्य कौओं को बुलाता है और वह थोडा सा ग्रास भी बाँट कर खाता हैं । जिस घर में प्रतिदिन मुनियों को आहार दिया जाता है वह घर ही घर है अन्यथा वह घर उस गृहस्थ को बाँध कर रखने के लिए बनाए हुए कारागृह के समान है।" परन्तु अनेक गृहस्थ निर्दोष आहारदान जैसे प्रतिदिन करने योग्य हितकारी कार्यों में अनेक बहाने बनाते हए उनसे विमुख रह कर दुर्गति में ले जाने वाला संयमघाती धन, नॅपकीन, मोबाईल, मोटर आदि देना, फोटो छपाना आदि कुदान उत्साह से करते हैं । ये ही वे लोग हैं जिन्होंने शास्त्रोक्त पद्धति से आचरण करने के मेरे प्रयत्नों को दबा कर मुझे शिथिलाचारी बनाने का प्रयत्न करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । परन्तु जैसे-जैसे मुझ पर उनका दबाव बढ़ता गया, वैसे-वैसे उनका खंडन करने के लिए मैं अधिकाधिक आगम-प्रमाण खोज कर उनके सामने रखता गया। कुछ लोगों का अज्ञान और बहुत से लोगों की ज्ञानी होकर भी शास्त्रविरुद्ध क्रियाओं के समर्थन में दुर्बुद्धि तथा तदनुसार मुझ जैसे शास्त्रभीरु साधुओं को आगमानुकूल चर्या करने से च्युत करने के उनके प्रयत्नों का निराकरण करके शास्त्रानुसार आचरण की पुनःप्रतिष्ठा करने के लिए ही मैने मुनिचर्या से संबंधित भ्रान्तियों रूप ज्वर का समूल विनाश करने के लिए कड़वी औषधि एवं धर्मभक्त परन्तु अज्ञानांधकार में पथभ्रष्ट हुए समाज को सत्पथ दिखाने में समर्थ ऐसे कुछ आगम प्रमाण कुछ धर्मप्रेमियों को दिखाए। बार-बार दुहराया जाने से सच लगनेवाले झूठ का भी आगमसूर्य के आलोक में पर्दाफाश हो ही जाता है । वे प्रमाण देखकर सब की प्रतिक्रिया ऐसी होती थी मानों दुनिया का आठवां अजूबा देखा हो। कड़वे सच ... . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . v :
SR No.009960
Book TitleKadve Such
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvandyasagar
PublisherAtmanandi Granthalaya
Publication Year
Total Pages91
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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