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________________ साधर्मी व्यक्ति साधुजन हैं मैं उनको उपकरण दे सकता है, बाकी कुछ नहीं दे सकता हूँ। मैं तुम्हारे लिये क्यों बाँटू? तीसरे ने कहा - महाराज, रख लो सही। लोक आते रहेंगे। बच्चे लोग आते रहते हैं। इसी के बहाने बच्चे मान जाते हैं। मैंने कहा - यह बहाने का काम भी मैं करना नहीं चाहता है। यदि मैं ऐसा करना शुरु कर दूंगा तो जो असली-असली क्रीम (भक्त) है वो टूटना प्रारंभ कर देगी और वह नकली-नकली क्रीम (भक्त) प्रारम्भ हो जायेगी. भक्त नहीं मिलेंगे फिर मुझे। फिर मुझे मिलेंगे वो व्यक्ति जो पेंसिल आदि वस्तुओं के लोभी होंगे। प्यासे हृदयवाले व्यक्ति नहीं मिलेंगे। (तीर्थंकर ऐसे बनो - पृष्ठ २१२) प्रश्नमंच से लोगों का ज्ञान बढ़ता है यह तर्क भी थोथा है क्योंकि प्रश्नमंच में जिस प्रकार के प्रश्न पूछे जाते हैं उनसे लोगों का क्या कल्याण होता है यह विचारणीय है। क्योंकि सच्चा ज्ञान तो वह है, जिससे हित की प्राप्ति और अहित का परिहार हो । (परीक्षामुख - १/१) अष्टपाहुड में कहा है - धणधण्णवत्थदाणं हिरण्णसयणासणाइ छत्ताई । कुद्दाणविरहरहिया पव्वज्जा एरिसा भणिया ।।बोधपाहूड ४६।। गाथार्थ- धन, धान्य तथा वस्त्रका दान, चाँदी-सोना आदिका सिक्का तथा शय्या, आसन और छत्र (फोटो, यंत्र, माला, मोती, मणि) आदि खोटी वस्तुओंके दानसे जो रहित है, ऐसी दीक्षा कही गई है। (पृष्ठ २१२) इसका कारण यह है कि शल्यों का अभाव होने पर ही व्रत के सम्बन्ध से व्रती होता है। सशल्य होने से व्रतों के रहते हुए भी व्रती नहीं कहा जा सकता। जो निःशल्य होता है वही व्रती है। और द्रव्य शल्य तीन प्रकारकी हैसचित्त शल्य : (ड्राईवर आदि नौकर) दासादि सचित्त द्रव्य शल्य हैं। अचित्त शल्य : (मालाएँ, मोती, फोटो, गॉगल, कम्प्युटर, मोबाईल, नॅपकीन, गाड़ी, यंत्र, रुपये) सुवर्ण आदि पदार्थ अचित्त शल्य हैं। मिश्र शल्य : (क्षेत्र, त्यागी भवन, आश्रम) ग्रामादिक मिश्र शल्य हैं। - कड़वे सच ..................-८५- (तत्त्वार्थ मञ्जूषा (द्वितीय खण्ड) - पृष्ठ ३०८) पुनः सूर्यास्त के समय से सामायिक करना यह साधुओं का आवश्यक मूलगुण है। उन्हें सूर्यास्त के समय सामाषिक करके रात्रि में सूर्यास्त के बाद दो घड़ी (४८ मिनट) बीत जाने पर पूर्वरात्रिक स्वाध्याय करना चाहिए। (मूलाचार पूर्वार्ध, पृष्ठ २२८) जिस आवश्यक की जो वेला है उसी वेला में वह आवश्यक करना चाहिए, अन्य वेला में नहीं। (पृष्ठ २९८) इसलिए आनन्दयात्रा के निमित्त से सूर्यास्त के समय सामायिक नहीं करके अन्य समय में करना काल-प्रतिसेवना नामक दोष है। वे (आ. महावीरकीर्ति) ख्याति-पूजा-लाभ की आदि से दूर रहने का प्रयत्न करते थे । जनसंपर्क से रहित व्यक्ति ही आत्मसाधना कर सकता है- ऐसा मानने वाले आचार्यश्री रात्रिकाल में बोलने की बात तो दूर, दिन में भी अधिकांश समय मौन रखा करते थे । साधना काल के निर्धारित समय में वे किसी कार्यक्रम आदि में भी सहभागी नहीं होते थे। अपने आवश्यकों का वे यथाविधि और यथासमय ही पालन करते थे । (श्रमण सूर्य - पृष्ठ २८१) इसी लिए आ. पुष्पदन्तसागर ने कहा था - दिगम्बर मनि रात्रि में नहीं बोलते । (अमृत कलश - पृष्ठ १५९) यदि ऐसा है तो फिर आनन्दयात्रा/प्रश्नमंच जैसे आयोजन कैसे हो सकते हैं ? अपने व्रत एवं मुनिपद की गरिमा नष्ट करनेवाले ये फूहड़ आयोजन करके लोकप्रियता पाने का प्रयत्न वे ही करते हैं. जिनको अपनी साधना पर विश्वास नहीं होता हैं । जन्मदिवस प्रश्न - साधुओं के द्वारा अपने जन्मदिवस, दीक्षादिवस आदि मनाने में क्या बाधा है? समाधान - जन्मोत्सव मनाना यानि मिथ्यादर्शन का समर्थन है, इसलिए ऐसा न करें । (इस काल में) यहाँ जन्म लेने वाले मिथ्यादर्शनमिथ्याचारित्र के साथ ही यहाँ आते हैं और उनकी जन्म-जयन्ती मनना - कड़वे सच ............. ........८६ :
SR No.009960
Book TitleKadve Such
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvandyasagar
PublisherAtmanandi Granthalaya
Publication Year
Total Pages91
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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