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________________ थे। ऐसे लोगों को (आ. शान्तिसागर) महाराज ने बताया था - ___ "आहार के लिए संकल्प करके दो बार निकलने से एक आहार की प्रतिज्ञा दूषित होती है, इसलिये सबेरे था दोपहर के बाव "एक ही बार" चर्या (आहार) को निकलना धर्म का मार्ग है।" (चारित्र चक्रवर्ती - पृष्ठ ८१) मूलाचार (टीका) में भी कहा है - कदाचित् प्रसंगवश यदि (आहार के लिए) प्रातः नहीं निकले हैं तो मध्याह्न सामायिक के उपरान्त सूर्यास्त से तीन घटिका पहले तक भी निकलते हैं। (पूवार्ध पृष्ठ २६७) इससे स्पष्ट होता है कि कोई भी साध एक दिन में दूसरी बार आहार के लिये नहीं निकल सकते। आहार के बदले में ... प्रश्न - साधु के आहार के बदले में यदि श्रावक क्षेत्रविकास के लिए कुछ धन दान के रूप में दे रहा हो तो इस प्रकार उसके यहाँ आहार करना उचित है या नहीं? समाधान - जिन्होंने समस्त पर्व-महोत्सव का त्याग कर दिया हैं, जिनके आने की कोई तिथि नहीं होती है, आने के पहले जो सूचना नहीं देते हैं उन्हें अतिथि कहते हैं । (प्रज्ञा प्रवाह - पृष्ठ १७४) जैन मुनि दाता के घर निमंत्रण पर भी नहीं जाते हैं और न ही उसको बताते हैं कि मैं किस घर में जाऊँगा चा कैसा भोजन करूंगा? (संत साधना - पृष्ठ १७) इसलिये जैन साधु अतिथि होते हैं । अतः साधु किस दिन किसके यहाँ जायेंगे यह कभी भी निश्चित नहीं किया जा सकता। अष्टपाइ में कहा हैउत्तम मज्झिम गेहे दारिदे ईसरे णिरावेक्खे । सव्वत्थ गिहिदपिंडा पव्वजा एरिसा भणिया ।। बोधपाहुड ४८।। अर्थात- साधु ऐसा विकल्प नहीं करता है कि मैं भिक्षा के लिए उच्चगह (धनवान के घर) में जाता हूं और नीचगृह (धनहीन के घर) में प्रवेश नहीं करता हूँ। दीक्षा दारिद्र्य और धनसंपन्नता के विषय में निरपेक्ष - कड़वे सच ... ..............-६५ - रहती है अर्थात् कभी ऐसा अभिप्राय नहीं रखती है कि मैं भिक्षा के लिए दरिद्र-निर्धन के घर में प्रवेश नहीं करूँ और ईश्वर-धनाढ्य के घर में प्रवेश करूँ । जो समस्त योग्य गृहों में आहार करती है वह प्रव्रज्या-दीक्षा है। (पृष्ठ २१३-२१४) क्योंकि - णिणेहा णिल्लोहा णिम्मोहा णिव्वियार णिक्कलुसा । णिब्भय णिरासभावा पव्वजा एरिसा भणिया ।।बोधपाहड ५०।। विशेषार्थ - जिनदीक्षा निर्लोभ - लोभ रहित होती है अर्थात् हे मुनिराज! हे तपस्विन् ! मैं तुम्हारे लिये यह (धन) वस्त्रादिक दूंगा आप हमारे घर पर भिक्षा ग्रहण किजिये, इस प्रकार के लोभ से रहित है। (पृष्ठ २२१) मूलाचार में कहा है कि यदि आज मेरे घर मुनि आहार को आयेंगे तो मैं यक्ष को अमुक नैवेद्य चढ़ाऊँगा (इतने रुपये दान दूंगा) आदि रूप से संकल्प करना बलिकर्म है। ऐसा करके आहार देने से भी बलि नाम का दोष होता है। (पूर्वार्ध पृष्ठ ३३८) इस प्रकार से दान के लिए निश्चित जगह पर आहार करनेवाले मुनि के लिए अष्टपाड में कहा है - जे पंचचेलसत्ता गंथग्गाहीय जायणासीला । __आधाकम्मम्मि रया ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि ।।मोक्षपाहुड ७९।। विशेषार्थ-जो मुनि (फोटो/पुस्तके छपवाना, आनन्दयात्रा-प्रश्नमंच अथवा प्रतियोगिताओं में इनाम बँटवाना, आहार-विहार, क्षेत्रविकास आदि) किसी काज से धन स्वीकृत करते हैं, याचना करना जिनका स्वभाव पड़ गया है और जो अध:कर्म में-निन्द्यकर्म में रत हैं वे मुनि मोक्षमार्ग से पतित हैं। जो मुनि जिनमुद्राको दिखाकर धन की याचना करते हैं वे माता को दिखा कर भाड़ा ग्रहण करनेवालों के समान है। (पृष्ठ ६५४-६५५) ऐसे मुनि की निर्भत्सना करते हए ज्ञानार्णव में कहा है - यतित्वं जीवनोपायं कुर्वन्त किं न लज्जितः । मातु पण्यमिवालम्ब्य यथा केचिद्गतघृणाः ।।४/५६।। निस्त्रपा: कर्म कुर्वन्ति यतित्वेऽप्यतिनिन्दितम् । कड़वे सच .. . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . . ६६.
SR No.009960
Book TitleKadve Such
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvandyasagar
PublisherAtmanandi Granthalaya
Publication Year
Total Pages91
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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