SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 36
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (पृष्ठ ८९) भगवती आराधना (टीका) में कहा है चारित्र में उद्योग और उपयोग ही तप है । (पृष्ठ २९) अतः शुद्ध आहार खाकर तप करना चाहिये । अशुद्ध आहार करके नहीं। (पृष्ठ २५६ ) दसवीं प्रतिमाधारी के लिए भी ऐसी शास्त्राज्ञा है कि उस व्रती श्रावक को अपने वा दूसरे के घर नीरस व सरस अनेक प्रकारके आहार में जान-बूझ कर कभी सम्मति नहीं देनी चाहिए। (प्रश्नोत्तर श्रावकाचार२४/१९) इसलिए जो मुनि अपने आहार के निमित्त साधन-सामग्रीचौका आदि साथ लेकर चलते हैं उनकी एषणा समिति चिन्तनीय है । (सम्यक् चारित्र चिन्तामणिः - ४ / ५१ - पृष्ठ ५१) परन्तु साधु के द्वारा कृत- कारित - अनुमोदना से रहित श्रावकों के द्वारा ग्राम में अथवा कही अन्यत्र जाकर दिया गया आहार लेने में दोष नहीं है । क्योंकि मुनि यदि मन-वचन-काय एवं कृत-कारित अनुमोदना से रहित होकर निर्ग्रन्थों के लिये बने आहार को लेते हैं तो उनके लिये वह आहार निर्दोष आहार है । ( चलते फिरते सिद्धों से गुरु पृष्ठ ६८ ) साधु आने के बाद... प्रश्न- क्या चौके में साधु आने के बाद कोई नई वस्तु बना सकते हैं? समाधान - आहार विधि विज्ञान में कहा है- चौके में साधु आने के पश्चात् शीलपैक डिब्बा वगैरह न खोले । और न हि फल वगैरह काटे । (पृष्ठ १५) क्योंकि मूलाचार उत्तरार्ध में कहा है जो भुंजदि आधाकम्मं छज्जीवाणं घायणं किच्चा । अबुहो लोल सजिब्भो ण वि समणो सावओ होज ।। ९२९ ।। आचारवृत्ति - छह जीव निकायों का घात करके अधः कर्म से बने हुए आहार को लेता है वह अज्ञानी लंपट जिह्वा के वशीभूत है। वह श्रमण नहीं रहता है बल्कि श्रावक हो जाता है। अथवा, वह न श्रमण है न ही श्रावक है, वह उभय के धर्म से रहित होता है। ।। ९२९ ।। और भी बताते हैं - कड़वे सच ५५ पयणं व पायणं वा अणुमणचित्तो ण तत्थ बीहेदि । जेमंतो वि सघादी ण वि समणो दिट्टिसंपण्णो ।।९३० ।। हु तस्स इमो लोओ ण वि परलोओ उत्तमट्ठभट्टस्स । लिंगग्गहणं तस्स दु णिरत्थयं संजमेण हीणस्स ।। ९३९ ।। गाथार्थ जो पकाने या पकवाने में अथवा अनुमोदना में अपने मन को लगाता है उनसे डरता नहीं है वह आहार करते हुए भी स्वघाती है, सम्यक्त्व सहित श्रमण नहीं है। उस उत्तमार्थ से भ्रष्ट के यह लोक भी नहीं है और परलोक भी नहीं है। संयम से हीन उसका मुनि वेष ग्रहण करना व्यर्थ है । पण पायणमणुमणणं सेवंतो ण वि संजदो होदि । जेमंतो वि य जह्मा ण वि समणो संजमो णत्थि ।। ९३४ ।। आचारवृत्ति: जो भोजन बनाने, बनवाने और अनुमोदना करने रूप कृत- कारित - अनुमति से युक्त है वह संवत नहीं है। वैसा आहार करने से वह श्रमण नहीं कहला सकता है, क्योंकि उस में संयम नहीं है। (पृष्ठ १२८- १३० ) वदसीलगुणा जम्हा भिक्खाचरिया विसुद्धिए ठंति । तम्हा भिक्खाचरियं सोहिय साहू सदा विहारिज ।। १००५ ।। गाथार्थ - क्योंकि भिक्षाचर्या की विशुद्धि के होने पर व्रत, शील और गुण ठहरते हैं, इसलिए साधु भिक्षाचर्या का शोधन करके हमेशा विहार करे । आचारवृत्ति आहारचर्या के निर्दोष होने पर ही व्रत, शील और गुण रहते हैं, इसलिए मुनि सदैव आहारचर्या को शुद्ध करके विचरण करे । अर्थात् आहार की शुद्धि ही प्रधान है, वही चारित्र है और सभी में सारभूत है । (पृष्ठ १६४ - १६५ ) - संयत ( मुनि) को आते देखकर भोजन पकाना प्रारम्भ करना अध्यधि दोष है । (मूलाचार पूर्वार्ध - पृष्ठ २३१) इसलिए साधु चौके में पधारने के बाद किसी भी प्रकार का आरंभ कार्य नहीं करना चाहिए। यदि कुछ अपूर्णता लगती है अथवा कोई वस्तु कम पड़ती है तो अन्य वस्तुओं से काम चलाना चाहिए। परन्तु फलों के टुकड़े आदि करना, सब्जी अथवा अन्य कोई नई वस्तु बनाना अथवा पहले कड़वे सच ५६
SR No.009960
Book TitleKadve Such
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvandyasagar
PublisherAtmanandi Granthalaya
Publication Year
Total Pages91
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy