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________________ करनेवाले नहीं हैं ऐसा कहना । इत्यादि। (पृष्ठ ८५६ ) इसी प्रकार की अन्य भी आगमविरुद्ध विसंगतियों का प्रचार-प्रसार करनेवाले साधु यथाच्छन्द अर्थात् स्वच्छन्द कहे जाते हैं। इनसे जिनागम का अत्यधिक विलोप होता है और निर्दोष मोक्षमार्ग अत्यन्त दूषित होता जाता है। पत्थर की नाव के सदृश आगमविरोधी ऐसे साधु स्वयं संसार समुद्र में डूबते हैं और अन्य को भी डुबोते हैं। नित्य एक ही वसतिका में रहते हैं, एक ही क्षेत्र में रहते हैं, एक ही संस्तर पर सोते हैं, गृहस्थों के घरों में जाकर बैठ जाते हैं, गृहस्थों के (योग्य) (मोबाईल, कम्प्युटर, कूलर, ए. सी. आदि) उपकरणों का उपयोग करते हैं, प्रतिलेखना किए बिना ही वस्तु को ग्रहण कर लेते हैं, या दुष्टतापूर्वक प्रतिलेखना करते हैं, सुई, कैंची, नाखून कतरनी (नेलकटर), छुरी, कान का मैल निकालने की सींक या साधन (यंत्र, मालाएँ, कम्प्युटर, अपने फोटो, नॅपकीन, मोबाईल, गाड़ी, नौकर) आदि सामग्रियाँ पास में रखते हैं, क्षारचूर्ण, सुरमा, नमक, घी एवं नाना प्रकार के तेल आदि बिना कारण ग्रहण करते हैं या अपने पास रखते हैं वे पार्श्वस्थ साधु हैं। जो इच्छानुसार लम्बा-चौड़ा संस्तरा बिछाते हैं और रात्रि भर मनमाना सोते हैं वे उपकरण बकुश साधु हैं, जो दिन में सोते हैं वे देहकुश हैं, ये दोनों भी पार्श्वस्थ हैं। जो बिना कारण (मल निकालने / स्वच्छ करने के लिए) पैर आदि धोते हैं, तेल मर्दन करते हैं, वस्त्रों को धोते हैं, झटकते हैं, सुखाते हैं एवं रंगवाते हैं, गण के माध्यम से उपजीविका करते हैं, तीन अथवा पाँच मुनियों की ही (अपने संघ के साधुओं की ही ) सेवा में तत्पर रहते हैं वे सब पार्श्वस्थ साधु हैं और जो अपनी सुखशीलता के कारण बिना प्रयोजन अयोग्य का सेवन करते रहते हैं वे साधु तो सर्वथा पार्श्वस्थ ही होते हैं। (मरण कण्डिका पृष्ठ ५५७ ) पुनः भगवती आराधना में कहते हैं - कड़वे सच ४३. सुहसादा किंमज्झा गुणसायी पावसुत्तपडिसेवी । विसयासापडिबद्धा गारवगरुया पमाइल्ला || १९४६ ।। अर्थ - वे सुखशील होते हैं, मुझे किसीसे क्या, ऐसा मानकर वे संघके सब कार्योंमें अनादरभाव रखते हैं, सम्यग्दर्शन आदि गुणोंमें उनका उत्साह नहीं होता । अपने और दुसरोंके अशुभ परिणामोंको तथा मिथ्यात्व, असंयम और कषायको बढ़ानेवाला शास्त्र पापसूत्र है। निमित्तशास्त्र, वैद्यक, कौटिल्यशास्त्र (राजनीति), स्त्री पुरुषके लक्षण बतलानेवाला कामशास्त्र, धातुवाद (भौतिक), काव्य, नाटक, चोरशास्त्र, शस्त्रोंका लक्षण बतलाने वाला शास्त्र, प्रहार करनेकी विद्या, चित्रकला, गांधर्व ( नाच-गाना ), गन्धशास्त्र, युक्तिशास्त्र आदि पापशास्त्रोंमें उनका आदर होता है, उसीका वे अध्ययन करते हैं। इष्ट विषयोंकी आशामें लगे रहते हैं, तीन गारव में आसक्त होते हैं । विकथा आदि पन्द्रह प्रमादोंमें युक्त होते हैं । (पृष्ठ ८५७) तथा - उबटन लगाना, तेलकी मालिश करना, उपकरण नष्ट हो जायेगा इसलिए उससे अपना कार्य न करना, जैसे पिच्छीके नाशके भयसे उससे प्रमार्जन न करना, कमंडलु आदिको धोना ( रंगवाना) । वसतिके तृण आदि खानेको अथवा उसके टूटने आदिको ममत्व भावसे रोकना, मेरे कुलमें बहुत यतियोंका प्रवेश सह्य नहीं है ऐसा कहना, प्रवेश करने पर को करना, बहुत यतियोंको प्रवेश देनेका निषेध करना, अपने कुलकी (अपनेही संघ के साधुओं की ) ही वैयावृत्य करना, निमित्त आदिका उपदेश देना, ममत्व होनेसे ग्राम, नगर अथवा देशमें ठहरनेका निषेध न करना, सम्बन्धी यतियोंके सुखसे अपनेको सुखी और दुःखसे दुःखी मानना इत्यादि अतिचार हैं। पार्श्वस्थ आदि मुनियोंकी वन्दना करना, उन्हें उपकरण आदि देना, उनका उल्लंघन करनेमें असमर्थ होना, इत्यादि अतिचारोंकी आलोचना करता है। ( अर्थात् ये क्रियायें दोषास्पद हैं ।) (पृष्ठ ४२३) गंथअणियत्ततण्हा बहुमोहा सबलसेवणासेवी । सहरसरूवगंधे फासेसु य मुच्छिदा घडिदा । । १९४८ । । कड़वे सच
SR No.009960
Book TitleKadve Such
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvandyasagar
PublisherAtmanandi Granthalaya
Publication Year
Total Pages91
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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