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________________ खाने को लड्डु मिलें, लोग कहे महाराज ।। (पृष्ठ ५३) बोधपाहुड की ५० वी गाथा में दीक्षा का वर्णन करते हुए ‘णिण्णेहा' शब्द का प्रयोग किया गया है। अर्थात् जिनदीक्षा निःस्नेह होती है - पुत्र, स्त्री, मित्र (परिवारजन, भक्त) आदि के स्नेह से रहित होती है। (अष्टपाड - पृष्ठ २२१) इसलिए भक्तों का दिल रखने के लिए भी मनि परिग्रह-स्वीकार आदि के द्वारा अपने व्रतों में दोष नहीं लगाते हैं। आचार्य आदिसागर (अंकलीकर) परम्परा के उन्नायक पट्टाधीश तपस्वी सम्राट आचार्य श्री सन्मतिसागर महाराज के जीवन की एक बोधप्रद घटना है - जयपुर में एक महिला चाँदी की माला बनवाकर लायी और संघस्थ साधुओं को बांटने के लिए पूज्य आचार्य श्री को निवेदन किया, तो पूज्य आचार्य श्री ने उत्तर दिया, "साधु को साधु जीवन में रहने दो, साधु अपरिग्रहीहै। उन्हें चांदी की माला की क्या आवश्यकता है?" (तपस्वी सम्राट - पृष्ठ २५) जिनशासन में क्षल्लक को भी - जो चाँदी आदि अधिक मूल्य की धातुओं से बना हुआ हो ऐसा बहुमूल्य कमण्डलु अथवा पात्र कभी ग्रहण नहीं करने की आज्ञा है । (प्रश्नोत्तर श्रावकाचार-२४/३४-४४) इसलिए- आचार्यश्री बोले, "मुनियों को मुनि ही रहने दो, सोने-चाँदी की वस्तुएँ देकर मुनीम मत बनाओ । वे चाँदी की माला की रखवाली करेंगे या ध्यान-साधना ?" (अनूठा तपस्वी - पृष्ठ १२३) अष्टपाहुड में कहा है - बालग्गकोडिमित्तं परिग्गहगहणं ण होइ साहणं ।... ।। सूत्रपाहुड-१७।। अर्थात् - निर्ग्रन्थ साधुओंके रोमके अग्रभाग की अनीके बराबर भी परिग्रह का ग्रहण नहीं करना चाहिए । (पृष्ठ १२०) इसलिए प्रसिद्ध प्रवचनकार आ. पुष्पदन्तसागर कहते हैं- "णमो लोए सव्वसाहणं।" अर्थात् लोक के सभी साधुओं को नमस्कार हो । कौन से साध ?.... चन्दा एकत्रित करनेवाले साधुओं को नमस्कार नहीं किया है। ऐसे साधु, साधु नहीं स्वादु हैं। (अध्यात्म के सुमन - पृष्ठ ९०) क्योंकि जब तक परिग्रह और परिचय के प्रति राग है. - कड़वे सच .. .... २९ तब तक सत्संग और संन्यास बकवास है। (अमृत कलश - पृष्ठ २०७) अतएव आरम्भी-परिग्रही साधुओंको सदगुरु नहीं कहा जा सकता, वे तो कुगुरु ही हैं। (पृष्ठ ४६) पंचमकालका अर्थ यह नहीं है कि मनमानी करें, (रसीद बुक आदि) बहीखाते साथ रखें, परिग्रह साथ रखें, पैसा एकत्रित करें। (मुक्तिपथ की ओर - पृष्ठ ५६) परिग्रह का फल - निगोद मूलाचार प्रदीप में कहा है - यतो न काकनी मात्रः संग्रहोऽस्ति महात्मनाम् ।.... ||७८।। अर्थात्-महात्मा मुनियोंके पास सलाई मात्र भी परिग्रह नहीं होता है। (पृष्ठ २०५) क्योंकि अष्टपाड में कहा है - जहजायरूवसरिसो तिलतुसमित्तं ण गिहदि हत्थेसु । जइ लेइ अप्पबहुयं तत्तो पुण जाइ णिग्गोदं ।।सूत्रपाहुड-१८।। अर्थात् - नम मुद्राके धारक मुनि तिलतुप मात्र भी परिग्रह अपने हाथोंमें ग्रहण नहीं करते। यदि थोड़ा-बहुत ग्रहण करते हैं तो निगोद जाते हैं। (पृष्ठ १२१) मैं संग्रहीत परिग्रह के माध्यम से संघ का संचालन करूँगा और मन्दिर बनाऊँगा इस प्रकार का व्याज (बहाना) निर्ग्रन्थ मुद्रा धारण कर नहीं करना चाहिये । जो दिगंबर मुद्रा को प्राप्त कर परिग्रह को स्वीकृत करते है, उनका नरक और निगोद में पड़ना सुनिश्चित है । (सम्यक् चारित्र चिन्तामणि-३/९४-९५, पृष्ठ ४०-४१) ममत्वभाव से ही परिग्रह प्रश्न - तत्त्वार्थसूत्र में मूर्छा को परिग्रह कहा है। इसलिए कोई मुनि नॅपकीन, मोबाईल, गाड़ी आदि रखते हुए भी यदि उन में ममत्व भावअपनापन नहीं रखता हो तब भी क्या वह परिग्रही ही है ? समाधान - यदि कोई साधुवेषधारी नॅपकीन, मोबाईल, मोटर आदि संयमघाती वस्तुओं का प्रयोग करता हुआ भी कहता है कि मुझे इन वस्तुओं में मूर्छा नहीं होने से यह परिग्रह नहीं है तो ऐसे स्व-पर वंचक ठग कड़वे सच ............... ३० .
SR No.009960
Book TitleKadve Such
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvandyasagar
PublisherAtmanandi Granthalaya
Publication Year
Total Pages91
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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