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________________ आगमानुसारी आचरण का फल प्रश्न - महाराज! आप तो महान् साधु हैं। आपके समक्ष रहने से सभी साधुओंका निर्वाह होता रहा है, आपके पश्चात् साधुओं का कैसे निर्वाह होगा ? उत्तर - जैसा आगम में कहा गया है, उसके अनुसार जो भी साधु चलेगा, उसकी रक्षा धर्म के द्वारा होगी। धर्माराधक की विपत्ति धर्म के प्रभाववश नियम से दूर होती है । ( चारित्र चक्रवर्ती पृष्ठ ३७२ ) I २. विडम्बना और चेतावनी साधु कौन ? ज्ञानांकुशम् के २४ वें श्लोक में आगत प्रपञ्चरहितो गुरुः इस पद की व्याख्या आ. सुविधिसागर ने रत्नमाला के २८ वें श्लोक का आधार लेकर निम्न प्रकारसे की है - दिगम्बरो निरारंभो नित्यानन्दपदार्थिनः । धर्मदिक् कर्मधिक् साधुर्गुरुरित्युच्यते बुधैः ||२८|| दिगम्बर साधु आडंबरों से विहीन, पाखंड से हीन, कषायों से उपरत, ज्ञान तथा ध्यान में तत्पर एवं आत्मतत्त्व की भावना में रत रहते हैं । इसलिए वे प्रपंच से रहित हैं। (ज्ञानांकुशम् - पृष्ठ ६९) इस यथार्थ कथन से विपरीत कितने ही शक्तिहीन बकवादी मनुष्य (नॅपकीन, मोबाईल, कम्प्युटर आदि) नाना उपकरणों को साधन समझ इनके ग्रहण में दोष नहीं है, ऐसा कहकर उन्हें ग्रहण करते हैं सो वे कुलिंगी हैं। मूर्ख मनुष्य व्यर्थ ही उन्हें आगे करते हैं। वास्तव में ऋषि (मुनि) वे ही हैं जिनकी परिग्रह में और उस की याचना में बुद्धि नहीं है। (पद्मपुराण भाग ३-११९/५९-६१, पृष्ठ ३९६ ) सन १९२५ की बात है। उस समय पूज्यश्री ( चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागर महाराज) नसलापुर में विराजमान थे। मुनि मिसागरजी उस समय गृहस्थ थे। उनके हृदय में सत्य, श्रद्धा और सद्गुरु के प्रति निर्मल भक्ति का भाव नहीं उत्पन्न हुआ था । कड़वे सच २१ श्री नेमण्णा ने महाराज से पूछा था- "साधु किसको कहते हैं। महाराज ने कहा था - "जिनके पास परिग्रह न हो, कवाय न हो, दुनिया की झंझटे न हो, जो स्वाध्याय - ध्यान में लीन रहता हो, उसे साधु कहते हैं।" (चारित्र चक्रवर्ती - पृष्ठ ३७१ ) ?" विडम्बना ऊँचे व्रतों को स्वीकार करके नीची वृत्ति को करना साधु पुरुषों को शोभा नहीं देता । गृह भवन, प्रासाद, महानगरों का त्याग करके नगर - नगर में स्वनाम के भवन बनवाने के लिए सेठों-मन्त्रियों के द्वारों पर अयाचक वृत्तिधारियों को जिनेन्द्रदेव के ध्वज पिच्छी को लेकर याचना करना पड़े यह तो विडम्बना है । जो त्यागी अर्थ के पीछे जिनमुद्रा को धूमिल कर रहे हैं, वे जिन शासन के शत्रु हैं। बहुत अच्छा होता कि कुछ दिन गृहस्थावस्था में रहकर (स्कूल-कॉलेज निर्माण, क्षेत्रविकास आदि) लौकिक कार्य सम्पन्न कर लेते, फिर निष्कल वीतरागमुद्रा धारण करते, जिससे मुनिमुद्रा में भीख नहीं माँगनी पड़ती । अहो त्यागिओ ! त्याग में कष्ट दृष्टिगोचर हो रहा हो तो क्यों नहीं गृहस्थ हो जाते ? जिससे मायाचारी तो नहीं करनी पड़ेगी तथा मुनिचर्या भी कलंकित नहीं होगी, आपको निगोद की यात्रा नहीं करनी पड़ेगी, ऐसा जिनोपदेश है। (समाधितंत्र अनुशीलन- पृष्ठ १३५ ) इसलिए आ. अभिनन्दनसागर कहते हैं - निर्धनता ( मुनिपद) धारण करने से पहिले पूर्ण विचार करना, कारण दोष लगाने की अपेक्षा अल्पारंभ (श्रावक) होना अच्छा है । (सुनना सबकी ! करना आगम की !!- पृष्ठ १७) मुनि पुलकसागर कहते हैं जैन मुनि अपने पास सोना, चांदी, रुपया, पैसा, आश्रम, मठ, मन्दिर, भूमि, अनाज, वाहन, नौकर या पशु नहीं रखते हैं । (संत साधना - पृष्ठ ८) किन्तु यह कड़वा सच है कि आज देश के संत महात्मा अकूत कड़वे सच २२
SR No.009960
Book TitleKadve Such
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvandyasagar
PublisherAtmanandi Granthalaya
Publication Year
Total Pages91
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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