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________________ (१) श्वेताम्बर उपसम्प्रदाय - __ अ) मंदिरमार्गी या मूर्तिपूजक जैन, प्रात:स्नान के उपरान्त यथोचित उपचारद्रव्यसहित मंदिर में देवदर्शन करते हैं । उनकी धार्मिक क्रियाएँ बहुतांशी मंदिर से जुडी हुई रहती है । उपवास, व्रत, पारणा, पंचकल्याणक-महोसव, चैत्यवंदन, भक्ति, भजन, चक्रपूजन आदि आकर्षक विधिविधान इनमें होते हैं। मंदिरनिर्माण और मूर्तिनिर्माण कद्वारा भारतीय कलाविष्कारों को लक्षणीय योगदान दिया है । प्राय: हरेक मंदिरों में समृद्ध ग्रन्थभाण्डार भी होते हैं। मूर्तिपूजकों के उपकेशगच्छ, खरतरगच्छ, तपागच्छ एवं आंचलगच्छ आदि प्रमुख गच्छ हैं। ब) चैत्यवासियों में मंदिर, पूजा-प्रतिष्ठा, क्रियाकाण्ड आदि का आडम्बर देखकर, अहमदाबादवासी लोकाशाह को जैनधर्म के मूल स्रोतों को जानने की तीव्र इच्छा उत्पन्न हुई । लोंकाशाह एक कर्तृत्वशाली वैश्य श्रावकथे । वे ईसवीसन १४५१ में एक मंदिर में गये । वहाँ ज्ञानजी साधुमहाराज, आगमों के हस्तलिखित प्रतियों की व्यवस्था में जे हए थे । लोकाशाह का धर्मप्रेम, ज्ञान एवं सुंदर हस्ताक्षर देखकर, ज्ञानजी ने उन्हें आगमों की नयी प्रतियाँ उतासे का काम सौंपा । लोकाशाह ने हरएक आगम की दो-दो प्रतियाँ बनायी । एक आगम प्रति के आधार से खुद ने आग्मों का बारीकी से अध्ययन किया । उनका निश्चय हुआ कि मूलगामी आगमों में मूर्तिपूजा एवं क्रियाकाण्ड का प्रचलन नहीं है । उन्होंने ३२ आगमों को ही मूल आगम मानें । धीरे धीरे अपने मूर्तिपूजाविरोधी मत का खूब प्रचारकया । लोग उस मत को 'लौंका' या लुम्पाक' कहते थे । इसी लुम्पाक मत में लव ऋषिजी' ने अधिक सुधार किये । लकषिजी सूरत निवासी श्रावक वीरजी के पुत्र थे । लव ऋषिजी के अनुयायियों को लोग ढूंढिया' कहते थे । लेकिन ईसवी के १६५३ के आसपास वे अपने को स्थानकवासी' कहने लगें । स्थानकवासियों में मंदिर, पूजा-प्रतिष्ठा आदि का प्रावधान नहीं है । श्रावकों की सहायता से बनी हुई धार्मिक शालाओं को स्थानक' कहते हैं । धीरे धीरे स्थनकवासी उपसम्प्रदाय का पूरे भारतवर्ष में खूब प्रचार हुआ। सुप्रसिद्ध जर्मन अभ्यासक ग्लासेनाप' के अनुसार, आज स्थानकवासियों की संख्या लगभग मूर्तिपूजकों जितनी अथवा दिगम्बरों जितनी मालूम पडती है । चातुर्मासकाल में स्थानक या उपाश्रयों में ठहरे हुए, साधु-साध्वियों के मार्गदर्शन में, स्थानकवासियों की धर्माराधना चलती रहती है। क) अठारहवीं सदी में मारवाड के आचार्य भिक्षु (भिखन, भिखम) के नेतृत्व में 'तेरापन्थ' की स्थापना हुई । इस पन्थ की स्थापना में तेरह भिक्षुओं का अंतर्भाव होने के कारण इन्हें 'तेरापन्थ' नाम से पुकारा जाने लगा। (Glasenapp, Jainism p.391) कुछ अभ्यासकों के मत से 'तेरा' यह शब्द संपूर्ण अनासक्ति का एवं कठोर आचारपालन का निदर्शक है । बीसवीं सदी में आ. तुलसी तेरापन्थ के नायक थे । उन्होंने श्रावकों में जैनधर्म कासार के लिए 'अणुव्रत आंदोलन' का प्रवर्तन किया। उनके पश्चात् आ.महाप्रज्ञ ने राजस्थान में लाडनूं विश्वविद्यालय के स्थापना में सक्रिय योगदान दिया । आधुनिक काल में 'समण और समणी' नाम से कहलानेवाला विद्याव्रती ब्रह्मचायिों का संघ, लाडनूं (राजस्थान) में जैनविद्या के अध्ययन, संशोधन आदि कार्य में निरत है । (२) दिगम्बर उपसम्प्रदाय - दिगम्बर सम्प्रदाय के इतिहास के अनुसार दिगम्बरों का प्राचीन संघ मूलसंघ' नाम से जाना जाता है । अष्टपाहुड के कर्ता आ. कुन्दकुन्द मूलसंघ के नायक थे। उनके पश्चात् मूलसंघ, चार शाखाओं में विभक्त हुआ -१) नन्दिसंघ २) सेनसंघ ३) सिंहसंघ और ४) देवसंघ । कहा जाता है कि ये चार नाम उन संघ के प्रवर्तकों के नाम से प्रचलित हुए । ये चार संघ बाद में अनेक पन्थों में विभक्त हुए । प्रत्येक में थोडा-थोडा आचारभेद था । जिस काल में मूलसंघ कार्यान्वित था, उसी काल में द्राविडसंघ, यापनीयसंघ और काष्ठासंघ, ये तीन मुख्य संघ भी दिगम्बरों में कार्यशील थे। इनमें से यापनीय (गोप्य) संघ ने ईसवी की छठी-सातवी शताब्दी में श्वेताम्बर
SR No.009955
Book TitleJainology Parichaya 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNalini Joshi
PublisherSanmati Tirth Prakashan Pune
Publication Year2012
Total Pages47
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size254 KB
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