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________________ D:\VIPUL\B001.PM65 (97) (तत्त्वार्थ सूत्र ++******++++++++अध्याय करता है उसे साता वेदनीय कहते हैं और जिसके उदय से अनेक प्रकार के दुखका अनुभव करता है उसे असाता वेदनीय कहते हैं ॥ ८ ॥ अब मोहनीय के भेद कहते हैं दर्शन- चारित्रमोहनीयाकषाय- कषायवेदनीयाख्यास्त्रि - द्वि-नव षोडशभेदाः सम्यक्त्व- मिथ्यात्व - तदुभयान्य कषाय- कषायौ हास्य- रत्यरति-शोक-भय-जुगुप्सा-स्त्रीपुं- नपुंसकवेदा अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यान- प्रत्याख्यानसंज्वलनविकल्पाश्चैकशः क्रोध-मान-माया लोभा: ||९|| अर्थ - मोहनीय कर्म के दो भेद हैं- दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय । दर्शन मोहनीय के तीन भेद हैं- सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यक् - मिथ्यात्व | चारित्र मोहनीय के दो भेद हैं- अकषाय वेदनीय और कषाय वेदनीय । अकषाय वेदनीय के नौ भेद हैं- हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसक वेद । कषाय वेदनीय के सोलह भेद हैं- अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान- माया-लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध-मान- माया-लोभ, प्रत्याख्यानावरण क्रोध- मानमाया- लोभ और संज्वलन क्रोध-मान- माया-लोभ । इस तरह मोहनीयके अट्ठाईस भेद हैं । विशेषार्थ - दर्शन मोहनीय कर्मके तीन भेदों में से बंध तो केवल एक मिथ्यात्व का ही होता है। किंतु जब जीवको प्रथमोपशम सम्यकत्व होता है तो उस मिथ्यात्व के तीन भाग हो जाते हैं। अतः सत्ता और उदय की अपेक्षा दर्शन मोहनीय के तीन भेद हैं जिसके उदय से जीव सर्वज्ञ के द्वारा कहे गये मार्ग से विमुख, तत्त्वार्थ के श्रद्धानके प्रति उदासीन और हित अहितके विचारसे शून्य मिथ्यादृष्टि होता है उसे मिथ्यात्व कहते हैं । जब शुभ परिणाम के द्वारा उस मिथ्यात्वकी शक्ति घटा दी जाती है और *+++++169++++++++ तत्त्वार्थ सूत्र +++++++++++++++अध्याय वह आत्मा के श्रद्धान को रोकने में असमर्थ हो जाता है तो उसे सम्यक्त्व मोहनीय कहते हैं और जब उसी मिथ्यात्वकी शक्ति आधी शुद्ध हो पाती है तब उसे सम्यक्मिथ्यात्व मोहनीय कहते हैं। उसके उदयसे जीवके श्रद्धान और अश्रद्धान रूप मिले हुए भाव होते हैं। चरित्र मोहनीय के दो भेद हैंअकषाय वेदनीय और कषाय वेदनीय । अकषाय का अर्थ ईषत् कषाय यानी किञ्चित् कषाय है। इसीसे अकषाय को नोकषाय भी कहते हैं । क्रोध आदि कषाय का बल पाकर ही हास्य आदि होते हैं, उसके अभावमें नहीं होते । इसलिए इन्हें अकषाय कहा जाता है। जिसके उदय से हँसी आती है उसे हास्य कहते हैं। जिसके उदयसे किन्हीं विषयों में द्वेष होता है उसे अरति कहते हैं। जिसके उदय से रंज होता है उसे शोक कहते हैं । जिसके उदय से डर लगता है उसे भय कहते हैं। जिसके उदयसे जीव अपने दोषों को ढांकता है और दूसरों को दोष लगाता है उसे जुगुप्सा कहते हैं। जिसके उदयसे स्त्रीत्वसूचक भाव होते हैं उसे स्त्री वेद कहते हैं । जिसके उदयसे पुरुषत्वसूचक भाव होते हैं उसे पुरुष वेद कहते हैं। जिसके उदय से स्त्रीत्व और पुरुषत्व दोनों से रहित एक तीसरे प्रकार के भाव होते हैं उसे नपुंसक वेद कहते हैं। ये नौ भेद अकषाय वेदनीय के हैं। कषाय वेदनीय के सोलह भेद इस प्रकार हैं- मूल कषाय चार हैं- क्रोध, मान, माया और लोभ । इनमें से प्रत्येककी चार-चार अवस्थाएँ होती हैं । मिथ्यात्व के रहते हुए संसारका अंत नहीं होता इसलिए मिथ्यात्व को अनंत कहते हैं और जो क्रोध, मान, माया या लोभ अनन्त यानी मिथ्यात्व से बंधे हुए हैं उन्हें अनंतानुबंधी कहते हैं। जिस क्रोध, मान, माया या लोभ के उदय से थोड़ा-सा भी देश चारित्र रूप भाव प्रकट नहीं हो सकता, उन्हें अप्रत्याख्यानावरण कहते हैं। जिस क्रोध मान, माया या लोभ के उदय से जीव के सकल चारित्र रूप भाव नहीं होते उन्हें प्रत्याख्यानावरण कहते हैं और जिस क्रोध, मान, माया या लोभ के उदय से शुद्धोपयोग रूप यथाख्यात चारित्र नहीं प्रकट होता उसे संज्वलन कहते हैं। ये कषाय +++++++++++170+++++++++++
SR No.009949
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
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