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________________ D:IVIPULIBO01.PM65 (89) (तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय .D लिए देश का परिमाण कर लेने को देश-विरति व्रत कहते हैं। इसमें भी उतने समय के लिए श्रावक मर्यादा से बाहर के क्षेत्र में महाव्रती के तुल्य हो जाता है। जिससे अपना कुछ लाभ तो न हो ओर व्यर्थ ही पाप का संचय होता हो ऐसे कामों को अनर्थ-दण्ड कहते हैं और उनके त्याग को अनर्थ-दण्ड विरति कहते हैं । अनर्थ दण्ड के पाँच भेद हैं-अपध्यान, पापोदेश, प्रमादाचरित, हिंसादान ओर अशुभश्रुति । दूसरों का बुरा विचारना कि अमुक की हार हो, अमुक को जेलखाना हो जाये, उसका लडका मर जाये, यह सब अपध्यान है। दूसरों को पाप का उपदेश देना यानी ऐसे व्यापार की सलाह देना जिससे प्राणियों को कष्ट पहुँचे अथवा युद्ध वगैरह के लिए प्रोत्साहन मिले, पापोपदेश है । बिना जरूरत के जंगल कटवाना, जमीन खुदवाना, पानी खराब करना आदि प्रमादाचरित है। विषैली गैस, अस्त्र, शस्त्र आदि हिंसा की सामग्री देना हिंसादान है। हिंसा और राग आदि को बढाने वाली दुष्ट कथाओं का सुनना, सुनाना आदि अशुभश्रुति है। इस प्रकार के अनर्थ-दण्डों का त्याग करना अनर्थदण्ड विरति है। तीनो सन्ध्यायों में समस्त पाप के कर्मों से विरत होकर नियत स्थान पर नियत समय के लिए मन, वचन और काय के एकाग्र करने को सामायिक कहते हैं। जितने समय तक गृहस्थ सामायिक करता है उतने समय के लिए वह महाव्रती के समान हो जाता है। प्रोषध नाम पर्व का है। जिसमें पाँचों इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय से निवृत्त होकर उपवासी रहती हैं, उसे उपवास कहते हैं । प्रोषध अर्थात पर्व के दिन उपवास करने को प्रोषधोपवास कहते हैं । मोटे तौर पर तो चारों प्रकार के आहार का त्याग करना उपवास कहलाता है किन्तु यर्थाथ में तो सभी इन्द्रियों का विषय भोग से निवृत्त रहना ही उपवास है। इसी के लिए भोजन का त्याग किया जाता है। अत: उपवास के दिन श्रावक को सब आरम्भ छोड़ कर और स्नान, तेल, फलेल, आदि न लगा कर चैतालय में अथवा साधुओं के निवास स्थान पर या अपने ही घर के किसी एकान्त स्थान पर धर्मचर्चा तत्त्वार्थ सूत्र ******** ****** अध्याय - करते हुए उपवास का समय बिताना चाहिये । खानपान, गन्ध माला वगैरह को उपभोग कहते हैं और वस्त्र, आभरण अलंकार, सवारी, मकान वगैरह को परिभोग कहते हैं। कुछ समय के लिए अथवा जीवन्त पर्यन्त के लिए उपभोग और परिभोग का परिमाण करना कि मैं इतने समय तक इतनी वस्तुओं से ही अपना काम चलाऊँगा, उपभोग परिभोग परिमाण व्रत है। जो अपने संयम की रक्षा करते हुए विहार करता है उसे अतिथि कहते हैं । अथवा जिसके आने का कोई दिन निश्चित नहीं हैं वह अतिथि है। मोक्ष के लिए तत्पर संयमी अतिथि को शुद्ध चित्त से निर्दोष भिक्षा देना अतिथि संविभाग व्रत है। ऐसे अतिथियों को आवश्यकता पड़ने पर योग्य औषधि देना, रहने को स्थान देना, धर्म के उपकरण पीछी, कमण्डलु और शास्त्र वगैरह देना भी इसी व्रत में सम्मिलित हैं। इस सूत्र में 'च' शब्द गृहस्थ के आगे कहे जानेवाले सल्लेखना धर्म को ग्रहण करने के लिए दिया है ॥२१॥ अतः सल्लेरवना का निरूपण करते हैं मारणान्तिकी सल्लेखनां जोषिता ||२|| अर्थ-मरण काल उपस्थित होने पर गृहस्थ को प्रीति पूर्वक सल्लेखना करना चाहिये। विशेषार्थ - सम्यक रीति से काय को और कषाय को क्षीण करने का नाम सल्लेखना है। जब मरण काल उपस्थित हो तो गहस्थ को सबसे मोह छोड़कर धीरे-धीरे खाना पीना भी छोड देना चाहिये और इस तरह शरीर को कृश करने के साथ ही कषायों को भी कृश करना चाहिये तथा धर्मध्यान पूर्वक मृत्यु का स्वागत करना चाहिये । शंका-इस तरह जान बूझकर मौत को बुलाना क्या आत्मवध नहीं कहा जायेगा? समाधान - नहीं, जब मनुष्य या स्त्री रागवश या द्वेषवश जहर खा * *** 4153 *
SR No.009949
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
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