SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ D:IVIPUL\BO01.PM65 (78) (तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय :D जीव रागके वश में होकर जो सुन्दर रूप को देखने का प्रयत्न करता है वह दर्शन क्रिया है। प्रमाद से आलिंगन करने की भावना स्पशन क्रिया है। विषय की नई-नई सामग्री जुटाना प्रात्ययिकी क्रिया है। स्त्री, पुरुष, पशु आदि के उठने बैठने के स्थान पर मल मूत्र आदि करना समन्तानुपातन क्रिया है। बिना देखी बिना साफ की हुई जमीन पर उठना-बैठना अनाभोग क्रिया है ॥१५॥ दूसरे के करनेयोग्य काम को स्वयं करना स्वहस्त क्रिया है। जो प्रवृत्ति पाप का कारण है उसमें सम्मति देना निसर्ग क्रिया है। दूसरे के द्वारा किये गये पापको प्रकट कर देना विदारण क्रिया है । चारित्र मोह के उदयसे शास्त्र विहित आवश्यक क्रियाओं को पालने में असमर्थ होने पर उनका अन्यथा कथन करना आज्ञाव्यापादिकी क्रिया है। शठता अथवा आलस्य से आगम में कही हुई विधि का अनादर करना अनाकांक्ष क्रिया है ॥२०॥ छेदन- भेदन आदि क्रिया में तत्पर रहना और दूसरा कोई वैसा करता हो तो देखकर प्रसन्न होना आरम्भ किया है। परिग्रह की रक्षा में लगे रहना परिग्राहिकी क्रिया है । ज्ञान- दर्शन वगैरह के विषय में कपट व्यवहार करना माया क्रिया है। कोई मिथ्यात्व क्रिया करता हो या दसरे से कराता हो तो उसकी प्रशंसा करके उसे उस काम में दृढ़ कर देना मिथ्यादर्शन क्रिया है । संयम को घातनेवाले कर्मके उदय से संयम का पालन नहीं करना अप्रत्याख्यान क्रिया है ॥२५॥ये पच्चीस क्रियाएं हैं जो साम्परायिक आस्रव के कारण हैं ॥५॥ सब संसारी जीवों में योग की समानता होते हुए भी आसव में भेद होने का हेतु बतलाते हैं तीव-मन्द-ज्ञाताज्ञात-भावाधिकरण वीर्यविशेषेभ्यस्तद्विशेषः ||६|| अर्थ- तीव्र भाव, मन्द भाव, ज्ञात भाव, अज्ञात भाव अधिकरण और वीर्य, इनकी विशेषता से आस्त्रव में भेद हो जाता है। (तत्त्वार्थ सूत्र ***************अध्याय - विशेषार्थ- क्रोधादि कषायों की तीव्रता को तीव्र भाव कहते हैं। कषायों की मन्दता को मन्द भाव कहते हैं । अमुक प्राणी को मारना चाहिये ऐसा संकल्प करके उसे मारना ज्ञात भाव है। अथवा प्राणी का घात हो जाने पर यह ज्ञान होना कि मैंने उसे मार दिया यह भी ज्ञात भाव है। मद से या प्रमाद से बिना जाने ही किसी का घात हो जाना अज्ञात भाव है। आस्रव के आधार द्रव्य को अधिकरण कहते हैं और द्रव्य की शक्ति विशेष को वीर्य कहते हैं। इनके भेदसे आस्रव में अन्तर पड़ जाता है। ये जहाँ जैसे होते हैं वैसा ही आस्रव भी होता है ॥६॥ अधिकरण के भेद बतलाते हैं अधिकरणं जीवाजीवा: ||७|| अर्थ- आस्रव के आधार जीव और अजीव हैं । यद्यपि जीव और अजीव दो ही हैं फिर भी जिस तिस पर्याय से युक्त जीव अजीव ही अधिकरण होते हैं, और पर्याय बहुत हैं । इसलिए सूत्र में जीवाजीवाः बहुवचनका प्रयोग किया है ॥७॥ अब जीवाधिकरण के भेद कहते हैंआद्यं संरम्भ-समारम्भारम्भ-योग-कृत-कारितानुमत कषायविशेषैत्रि स्त्रिस्त्रिश्चतुश्चैकश: ||८| अर्थ-संरम्भ-समारम्भ-आरम्भ ये तीन, मन-वचन-काय ये तीन, कृत-कारित--अनुमोदन ये तीन, क्रोध-मान- माया और लोभ ये चार इन सबको परस्पर में गुणा करने से जीवाधिकरण के एक सौ आठ भेद होते हैं। विशेषार्थ - प्रमादी होकर हिंसा वगैरह करने का विचार करना समरंभ है । हिंसा वगैरह की साधन सामग्री जुटाना समारम्भ है। हिंसा वगैरह करना आरंभ है। स्वयं करना कत है। दूसरे से कराना कारित है। कोई करता हो तो उसकी सराहना करना अनुमोदना है। #*#* *131 **** ** **132
SR No.009949
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy