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________________ D:\VIPUL\BOO1. PM65 (75) तत्त्वार्थ सूत्र *************** अध्याय व्यय प्रति समय होता रहता है। दूसरा लक्षण है जो गुण पर्याय वाला हो वह द्रव्य है । सो काल द्रव्य में सामान्य गुण भी पाये जाते हैं और विशेष गुण भी पाये जाते हैं। काल द्रव्य समस्त द्रव्यों को वर्तना में हेतु है। यह उसका विशेष गुण हैं; क्योंकि यह गुण अन्य किसी भी द्रव्य में नहीं पाया जाता । अचेतनपना, अमूर्तिकपना, सूक्ष्मपना, अघुरुलघुपना आदि सामान्य गुण हैं जो अन्य द्रव्यों में भी पाये जाते हैं । उत्पाद - व्ययरूप पर्याय भी काल में होती है। अतः दोनों लक्षणों से सहित होने के कारण काल भी द्रव्य है । यह काल द्रव्य अमूर्तिक है क्योंकि उसमें रूप, रस वगैरह गुण नहीं पाये जाते । तथा ज्ञान दर्शन आदि गुणों से रहित होने से अचेतन है । किन्तु काल द्रव्य बहु प्रदेशी नहीं है; क्योंकि लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर एक एक कालाणु रत्नों की राशि की तरह अलग अलग स्थित हैं। वे आपसमें मिलते नहीं हैं। अतः काल द्रव्य काय नहीं है। और प्रत्येक कालाणु एक- एक काल द्रव्य है। इससे काल द्रव्य एक नहीं हैं किन्तु जितने लोकाकाश के प्रदेश हैं उतने ही काल द्रव्य हैं । अतः काल द्रव्य असंख्यात हैं और वे निष्क्रिय हैं- एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश पर नहीं जाते जहाँ के तहाँ ही बने रहते हैं ॥३९॥ अब व्यवहार काल का प्रमाण बतलाते हैं सोऽनन्तसमयः ||४०|| अर्थ - वह काल द्रव्य अनन्त समय वाला है- अर्थात् काल के समयों का अंत नहीं है । विशेषार्थ - भूत, भविष्यत् और वर्तमान- ये व्यवहार काल के भेद हैं । सो वर्तमान काल का प्रमाण तो एक समय है; क्योंकि एक समयके समाप्त होने पर वह भूत हो जाता है और जो दूसरा समय उसका स्थान लेता है वह वर्तमान कहलाता है, किंतु भूत और भविष्यत् काल अनन्त समय वाला है । इसीसे व्यवहार काल की अनंत समय वाला कहा है। ***++++ 125++++++++++ तत्त्वार्थ सूत्र +++++++++++++अध्याय अथवा यह सूत्र मुख्य काल का ही प्रमाण बतलाता है; क्योंकि एक कलाणु अनन्त पर्यायों की वर्तना में कारण है इसलिए उपचार से कालाणु को अनंत कह सकते हैं। काल के सबसे सूक्ष्म अंशका नाम समय है। और समयों के समूह का नाम आवली घड़ी आदि है । वह सब व्यवहार काल है, जो मुख्य काल द्रव्य की ही पर्याय रूप है ॥ ४० ॥ अब गुण का लक्षण कहते हैं द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ||४१|| अर्थ - जो द्रव्य के आश्रय से रहते हैं तथा जिनमें अन्य गुण नहीं रहते, उन्हें गुण कहते हैं । शंका- गुण का यह लक्षण पर्याय में भी पाया जाता है; क्योंकि पर्याय भी द्रव्य के आश्रय से ही रहती है और उसमें गुण भी नहीं रहते । अतः यह लक्षण ठीक नहीं है ? समाधान- गुण तो सदा ही द्रव्य के आश्रय से रहता है, कभी भी द्रव्य को नहीं छोड़ता । किन्तु पर्याय अनित्य होती है एक जाती है दूसरी आती है। अतः गुण का उक्त लक्षण पर्याय में नहीं रहता ॥ ४१ ॥ अनेक जगह परिणाम शब्द आया है। अतः उसका लक्षण कहते हैं तद्भावः परिणामः ||४|| अर्थ - धर्मादि द्रव्य जिस स्वरूप से होते हैं उसे तद्भाव कहते हैं। और उस तद्भाव का ही नाम परिणाम है। विशेषार्थ - जिस द्रव्य का जो स्वभाव है वही परिणाम है। जैसे धर्म द्रव्यका स्वभाव जीव पुद्गलों की गतिमें निमित्त होना है। वही तद्भाव है। धर्म द्रव्य का परिणमन सदा उसी रूप से होता है। इसी प्रकार अन्य द्रव्यों में भी समझ लेना चाहिए ॥ ४२ ॥ इति तत्त्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥ ++++++ 126+++******+ ++++
SR No.009949
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
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