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________________ D:\VIPUL\B001.PM65 (68) (तत्त्वार्थ सूत्र ++******++++++++अध्याय असातावेदनीय के उदयसे जो संक्लेशरूप भाव होता है वह दुःख है । आयु कर्म के उदय से एक भव में स्थित जीव के श्वासोच्छवास का जारी रहना जीवन है और उसका उच्छेद हो जाना मरण है। ये भी पुद्गल के निमित्त से ही होते हैं अतः पौद्गलिक हैं। यहाँ उपकार का प्रकरण होने पर भी सूत्र में जो 'उपग्रह' पद दिया है वह यह बतलाने के लिए दिया है कि पुद्गल जीवका ही उपकार नहीं करता, किन्तु पुद्गल पुद्गल का भी उपकार करता है । जैसे राख से कांसे के बर्तन साफ किये जाते हैं या निर्मली डालने से मैला पानी साफ हो जाता है। तथा यहाँ उपकार का मतलब केवल भलाई नहीं लेना चाहिये, बल्कि किसी भी कार्य में सहायक होना उपकार है ॥२०॥ आगे जीवकृत उपकार बतलाते हैं परस्परोपग्रहो जीवानाम् ||२१|| अर्थ- आपस में एक दूसरे की सहायता करना जीवों का उपकार है। जैसे, स्वामी धन वगैरह के द्वारा अपने सेवक का उपकार करता है और सेवक हित की बात कह कर और अहित से बचाकर स्वामी का उपकार करता है । इसी तरह गुरु उचित उपदेश देकर शिष्य का उपकार करता है। और शिष्य गुरु की आज्ञा के अनुसार आचरण करके गुरु का उपकार करता है । उपकार का प्रकरण होते हुए भी इस सूत्र में जो उपग्रह पद दिया है वह यह बतलाने के लिए दिया है कि पहले सूत्र में बतलाये गये सुखदुःख आदि भी जीव कृत उपकार हैं। अर्थात् एक जीव दूसरे जीव को सुख - दुःख भी देता है और जीवन मरण में भी सहायक होता है॥ २१ ॥ अन्त में काल का उपकार बतलाते हैं वर्तना - परिणाम-क्रियाः परत्वापरत्वे च कालस्य ||२२|| अर्थ- वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व और अपरत्व ये काल द्रव्य के उपकार हैं। *******++++111+++++****** तत्त्वार्थ सूत्र + *******+अध्याय विशेषार्थ प्रति समय छहों द्रव्यों में जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य होता रहता है इसीका नाम वर्तना है । यद्यपि सभी द्रव्य अपनी अपनी पर्याय रूप से प्रति समय स्वयं ही परिणमन करते हैं किन्तु बिना बाह्य निमित्त के कोई कार्य नहीं होता। और उसमें बाह्य निमित्त काल है। अतः वर्तना को काल का उपकार कहा जाता है। अपने स्वभाव को न छोड़कर द्रव्यों की पर्यायों के बदलने को परिणाम कहते हैं। जैसे जीव के परिणाम क्रोधादि हैं और पुद्गल के परिणाम रूप रसादि हैं। एक स्थान से दूसरे स्थान में गमन करने का नाम क्रिया है। यह क्रिया जीव और पुद्गलों में ही पायी जाती है। जो बहुत दिनों का होता है उसे पर कहते हैं और जो थोड़े दिनों का होता है उसे अपर कहते हैं। ये सब कालकृत उपकार हैं। यद्यपि परिणाम वगैरह वर्तना के ही भेद हैं किन्तु काल के दो भेद बतलाने के लिए उन सबका ग्रहण किया है। काल द्रव्य दो प्रकार का है- निश्चय काल और व्यवहार काल । निश्चय काल का लक्षण वर्तना है और व्यवहार काल का लक्षण परिणाम वगैरह है। जीव पुद्गलों में होने वाले परिणमन में ही व्यवहारकाल घड़ी, घंटा वगैरह जाने जाते हैं। उसके तीन भेद हैं भूत, वर्तमान और भविष्य । इस घड़ी, मूहुर्त, दिन, रात, वगैरह में होनेवाले काल के व्यवहार से मुख्य निश्चयकाल का अस्तित्व जाना जाता है; क्योंकि मुख्य के होने से ही गौण व्यवहार होता है । अत: लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर जो एक-एक कालाणु स्थित है वही निश्चय काल है । उसी के निमित्त से वर्तना वगैरह उपकार होते हैं ॥ २२ ॥ अब पुद्गलों का लक्षण बतलाते हैं स्पर्श-रस- गन्ध-वर्णवन्त: पुद् गलाः ||२३|| अर्थ - जिनमें स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण पाये जाते हैं उन्हें पुद्गल कहते हैं। समस्त पुद्गलों में ये चारों गुण अवश्य पाये जाते हैं। विशेषार्थ- स्पर्श गुण आठ प्रकार का है- स्निग्ध-रूक्ष, शीत ++++ ++++++112++++++++++++
SR No.009949
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
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