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________________ D: IVIPUL\BO01.PM65 (66) तत्त्वार्थ सूत्र ++++++++++++ अध्याय शंका- यदि आत्मा के प्रदेशों में संकोच विस्तार होता है तो वे सकुचते सकुचते इतने छोटे क्यों नहीं हो जाते कि आकाश के एक प्रदेश में एक जीव रह सके ? समाधान आत्मा के प्रदेशों का संकोच या विस्तार शरीर के अनुसार होता है। और सबसे छोटा शरीर सूक्ष्मनिगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव के होता है जिसकी अवगाहना अंगुल के असंख्यातवें भाग है। अतः जीव की अवगाहना इससे कम नहीं होती, कमसे कम इतनी ही रहती है। इस से वह लोक के असंख्यातवें भाग प्रमाण है ॥ १६ ॥ अब प्रत्येक द्रव्य का कार्य बतलाते हैं गति - स्थित्युपग्रहौ धर्माधर्मयोरुपकार: ।।१७// अर्थ - जीव और पुद्गल की गति रूप उपकार धर्म द्रव्य करता है और स्थिति रूप उपकार अधर्म द्रव्य करता है। विशेषार्थ जीव और पुद्गल द्रव्य एक स्थानसे दूसरे स्थान पर जाते आते हैं। यह गमन करने की शक्ति तो जीव और पुद्गलों में ही है। अतः गमन करने में अन्तरंग कारण तो वे स्वयं ही हैं । किन्तु बाह्य सहायक के बिना कोई कार्य नहीं होता । अतः बाह्य सहायक धर्म द्रव्य है। किन्तु यदि कोई जीव या पुद्गल गमन नहीं करता हो तो उसे धर्मद्रव्य चलने की प्रेरणा नहीं करता। जैसे मछली में गमन करनेकी शक्ति तो स्वयं ही है परन्तु बाह्य सहायक जल है। किन्तु यदि मछली न चले तो जल उसे जबरन नहीं चलाता है। फिर भी जल के बिना मछली गमन नहीं कर सकती अतः उसके गमन करन में जल सहायक है। ऐसे ही अधर्म द्रव्य चलते हुए जीव पुद्गलों को ठहरने में सहकारी कारण है। जैसे ग्रीष्म ऋतु तु में गमन करते हुए पथिकों को ठहरने में वृक्ष की छाया सहायक है। परन्तु वह जबरन किसी को नहीं ठहराता है। शंका -भूमि, जल वगैरह ही गति वगैरह में सहायक देखे जात हैं। ***+++++++107 +++++++++ तत्त्वार्थ सूत्र +++++++++++++++अध्याय फिर धर्म और अधर्म द्रव्य को मानने की क्या आवश्यकता है ? समाधान भूमि, जल वगैरह तो किसी किसी के ही चलने या ठहरने में सहायक हैं। किन्तु धर्म और अधर्म द्रव्य तो सभी जीव और पुद्गलों की गति और स्थिति में साधारण सहायक हैं। फिर एक कार्यकी उत्पत्ति में अनेक कारण भी आवश्यक होते हैं। अतः ऊपर की शंका ठीक नहीं है ॥१७॥ क्रमशः आकाश द्रव्य का उपकार बतलाते हैं आकाशस्यावगाहः ||१८| अर्थ- सब द्रव्यों को अवकाश देना आकाश द्रव्य का उपकार है। शंका- क्रियावान् जीव और पुद्गल द्रव्य को अवकाश देना तो ठीक है किन्तु धर्मादि द्रव्य तो कहीं आते-जाते नहीं हैं, अनादि काल से जहाँ के तहाँ स्थित हैं । उनको अवकाश देने की बात उचित प्रतीत नहीं होती । समाधान जैसे आकाश चलता नहीं है फिर भी उसे सर्वगत (जो सब जगह जाता है) कहते हैं; क्योंकि वह सर्वत्र पाया जाता है। ऐसे ही धर्म और अधर्म द्रव्य में अवगाह रूप किया यद्यपि नहीं है फिर भी वे समस्त लोकाकाश में व्याप्त हैं इसलिए उपचार से उन्हें अवगाही कह दिया है। यद्यपि जीव और पुद्गलों को ही आकाश मुख्य रूप से अवकाश दान देता है। शंका- यदि अवकाश (स्थान) देना आकाश का स्वभाव है तो एक मूर्तिक द्रव्य का दूसरे मूर्तिक द्रव्य से प्रतिघात नहीं होना चाहिये; क्योंकि आकाश सर्वत्र है । किन्तु देखा जाता है कि मनुष्य दीवार से टकरा कर रुक जाता है ? समाधान - यह दोष ठीक नहीं है क्योंकि मनुष्य जब दीवार से टकराता है तो वहाँ पुद्गलकी पुद्गल से टक्कर होती है, किन्तु इसमें *****+++++108+++++++
SR No.009949
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
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