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________________ DRIVIPULIBOO1.PM65 (56) तत्त्वार्थ सूत्र ************** अध्याय -D बाहर भी ज्योतिषी देव हैं और वे चलते नहीं हैं ये दोनों बातें बतलाने के लिए ही 'बहिरवस्थिताः' सूत्र कहा है ॥ १५ ॥ तीन निकायों का वर्णन करके अब चौथी निकाय का वर्णन करते हैं वैमानिका : ||१६|| अर्थ-जिनमें रहनेवाले जीव विशेष रूप से पुण्यशाली माने जाते हैं उन्हें विमान कहते हैं । और विमानो में जो देव उत्पन्न होते हैं उन्हे वैमानिक कहते हैं। विशेषार्थ- यह सूत्र अधिकार सूचक है। यह बतलाता है कि आगे वैमानिक देवों का वर्णन किया जायेगा । विमान तीन प्रकार के होते हैं - इन्द्रक, श्रेणीबद्ध और पुष्प प्रकीर्णक । जो विमान इन्द्र की तरह अन्य विमानों के बीच में रहता है उसे इन्द्रक विमान कहते हैं । उसकी चारों दिशओं में कतारबद्ध जो विमान होते हैं वे श्रेणीबद्ध कहे जाते हैं और विदिशाओं में जहाँ तहाँ बिखरे फूलों की तरह जो विमान होते हैं उन्हें पुष्प प्रकीर्णक विमान कहते हैं ॥१६॥ आगे वैमानिक देवों के भेद कहते हैं कल्पोपपन्ना: कल्पातीताश्च ||१७|| अर्थ - वैमानिक देवों के दो भेद हैं-कल्पोपपन्न और कल्पातीत । जहाँ इन्द्र आदि की कल्पना होती है उन सोलह स्वर्गो को कल्प कहते हैं और जहाँ इन्द्र आदि की कल्पना नहीं होती, उन ग्रैवेयक वगैरह को कल्पातीत कहते हैं ॥१७॥ इनकी अवस्थिति बतलाते हैं उपर्युपरि ||१८|| अर्थ-ये कल्प आदि ऊपर ऊपर हैं ॥१८॥ तत्त्वार्थ सूत्र **** ***** **अध्याय - अब उन कल्प आदि का नाम बतलाते हैं जिनमें वैमानिक देव रहते हैं सौधर्मेशान-सानत्कुमार-माहेन्द्र-ब्रह्मब्रह्मोत्तर- लान्तव-कापिष्ठ शुक्र-महाशुक्र शतार-सहसारेष्वानतप्राणतयोरारणाच्युतयोनवसु ग्रैवेयकेषु विजय -वैजयन्त-जयन्ता पराजितेषु सर्वार्थसिद्धौ च ||१९|| अर्थ-सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र , महाशुक्र , शतार, सहस्त्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत, इन सोलह स्वर्गों में, इनके ऊपर नौ ग्रैवेयकों में, नौ अनुदिशों में और विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि इन पाँच अनुत्तर विमानों में वैमानिक देव रहते हैं। विशेषार्थ - भूमितल से निन्यावे हजार चालीस योजन ऊपर जाने पर सौधर्म और ऐशान कल्प आरम्भ होता है। उसके प्रथम इन्द्रक विमान का नाम ऋतु है। वह ऋतु विमान सुमेरु पर्वत के ठीक ऊ पर एक बाल के अग्रभाग का अन्तराल देकर ठहरा हुआ है। उसका विस्तार ढाई द्वीप के बराबर पैंतालीस लाख योजन है । उसकी चारों दिशाओं में बासठबासठ पंक्ति बद्ध विमान हैं और विदिशाओं में बहुत से प्रकीर्णक विमान हैं। उसके ऊपर असंख्यात योजन का अन्तराल देकर दसरा पटल है। उसमें भी बीच में एक इन्द्रक विमान है । उसकी चारों दिशाओं में इकसठ- इकसठ श्रेणीबद्ध विमान हैं और विदिशाओं में प्रकीर्णक विमान हैं। इस तरह असंख्यात असंख्यात योजन का अन्तराल देकर डेढ़ राजु की ऊँचाई में इकत्तीस पटल हैं। इन इकत्तीस पटलों के पूरब, पश्चिम, और दक्षिण दिशा के श्रेणी बद्ध विमान तथा इन्द्रक और पूरब दक्षिण दिशा के और दक्षिण पश्चिम दिशा के श्रेणीबद्धों के बीच में जो प्रकीर्णक हैं वे
SR No.009949
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
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