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________________ DIVIPULIBOO1.PM65 (54) (तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय) सोलह इन्द्र हैं। इस तरह प्रत्येक निकाय के प्रत्येक भेद मे दो-दो इन्द्र होते देवों के काम सेवन का ढंग बतलाते हैं कायप्रवीचारा आ ऐशानात् ||७|| अर्थ- मैथुन सेवन का नाम प्रवीचार है । भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क, देव और सौधर्म तथा ऐशान स्वर्ग के देव अपनी अपनी देवांगनाओं के साथ मनुष्य की तरह शरीर से मैथुन सेवन करते हैं ॥७॥ शेष स्वर्गों के देवो के विषय में कहते हैं शेषा: स्पर्श-रूप-शब्द-मन: प्रवीचाराः ||८|| अर्थ- शेष स्वर्गों के देव स्पर्श, रूप, शब्द और मन से ही मैथुन सेवन करते हैं । अर्थात् सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग के देव अपनी अपनी देवियों के आलिंगन मात्र से ही परम सन्तुष्ट हो जाते हैं। यही बात देवियों की भी है । ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव और कापिष्ठ स्वर्ग के देव अपनी अपनी देवियों के सुन्दर रूप, श्रृंगार, विलास वगैरह के देखने मात्र से ही सन्तुष्ट हो जाते हैं। शुक्र , महाशुक्र , शतार और सहस्त्रार स्वर्ग के देव अपनी अपनी देवियों के मधुर गीत, कोमल हास्य, मीठे वचन तथा आभूषणों का शब्द सुनने से ही तृप्त हो जाते हैं। आनत, प्राणत, आरण और अच्युत स्वर्ग के देव अपनी अपनी देवियों का मन मे चिन्तन कर लेने से ही शान्त हो जाते हैं॥८॥ सोलह स्वर्गों से ऊपर के देवों मे किस प्रकार का सुख है, यह बतलाते हैं परेऽप्रवीचारा : ||९|| अर्थ - यहाँ पर 'शब्द से समस्त कल्पातीत देवों का ग्रहण किया गया है। अत: अच्युत स्वर्ग से ऊपर नौ ग्रैवेयक, नौ अनुदिश और पाँच 中中中中中中中中中中中中中中中中中中中中中 तत्त्वार्थ सूत्र *#************ अध्याय -D अनुत्तरों में रहने वाले अहमिन्द्र देवों में काम सेवन नहीं है क्योकि वहाँ देवांगनाएँ नहीं होती।अत: काम भोगरूप वेदना के न होने से ऊपर के देव परम सुखी हैं ॥९॥ अब भवनवासी देवों के दस भेद बतलाते हैंभवनवासिनोऽसुर-नाग-विद्युत-सुपर्णाग्नि-वात स्तनितोदधि-दीप-दिक्कुमाराः ||१०|| अर्थ-जो देव भवनों में निवास करते हैं, उन्हें भवनवासी कहते हैं। भवनवासी देव दस प्रकार के होते हैं-असुर कुमार,नागकुमार,विद्युत कुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार, वातकुमार, स्तनित कुमार, उदधि कुमार, द्वीप कुमार और दीक्कुमार। विशेषार्थ - यद्यपि सभी देवों की जन्म से लेकर मरण तक एक सी अवस्था रहती है। अतः अवस्था से सभी कुमार हैं । किन्तु भवनवासी देवों की वेशभूषा, अस्त्र-शस्त्र, बात-चीत, खेलना-कूदना वगैरह कुमारों की तरह ही होता है, इसलिए इनको कुमार कहते हैं । उक्त रत्नप्रभा पृथ्वी के पङ्कबहुल भाग में असुर कुमारों के भवन बने हुए हैं, और उसी के खर भाग में बाकी के नौ कुमारो के भवन हैं। उन्हीं में ये रहते हैं। इसी से इन्हें भवनवासी कहते हैं ॥१०॥ अब व्यन्तर देवों के आठ भेद बतलाते हैं व्यन्तरा: किन्नर-किम्पुरुष-महो रग गंधर्व-यक्ष-राक्षस-भूत-पिशाचाः ||११।। अर्थ-अनेक स्थानों पर जिनका निवास है उन देवों को व्यन्तर कहते हैं । व्यन्तरों के आठ भेद हैं-किन्नर, किम्पुरूष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच । विशेषार्थ - वैसे तो उक्त रत्नप्रभा पृथ्वी के खर भाग में राक्षसों के
SR No.009949
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
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