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________________ D:\VIPUL\B001.PM65 (44) (तत्त्वार्थ सूत्र ++******++++++++ अध्याय गया है, तथा प्रत्येक द्वीप और समुद्र अपने से पूर्व के द्वीप समुद्रो को घेरे हुए चूड़ी के आकार का है। अर्थात् पहले द्वीप का जितना विस्तार है उससे दूना विस्तार पहले समुद्र का है। उससे दूना विस्तार दूसरे द्वीप का है और उससे दूना विस्तार दूसरे समुद्र का है। इस तरह द्वीप से दूना विस्तार समुद्र का है और समुद्र से दूना विस्तार आगे के द्वीप का है। तथा जम्बूद्वीप को लवण समुद्र घेरे हुए है, लवण समुद्र को धातकी खण्ड घेरे हुए है, धातकीखण्ड को कालोदघि समुद्र घेरे हुए है। इस तरह जम्बूद्वीप के सिवा शेष सब द्वीप और समुद्र चूड़ी के आकारवाले हैं ॥८ ॥ आगे जम्बूद्वीप का आकार वगैरह बतलाते हैंतन्मध्ये मेरुनाभिर्वृ त्तो योजन- शतसहस्त्रविष्कम्भो जम्बूद्वीपः ||९|| अर्थ - उन सब द्वीप समुद्रों के बीच मे जम्बूद्वीप है । यह जम्बूद्वीप सूर्य मण्डल की तरह गोल है और उसका विस्तार एक लाख योजन है। उसके बीच में मेरुपर्वत है । विशेषार्थ - उत्तर- कुरु भोगभूमि में एक जम्बूवृक्ष (जामुन का पेड़ ) है । वह वृक्ष पार्थिव है, हरा भरा वनस्पति कायिक नहीं है। इसी से वह अनादि निधन है। उसी कारण यह द्वीप जम्बूद्वीप कहा जाता है ॥९॥ आगे जम्बूद्वीप मे सात क्षेत्र बतलाते हैंभरत - हैमवत - हरि - विदेह- रम्यक- हैरण्यवतैरावतवर्षा: क्षेत्राणि 119011 अर्थ - उस जम्बूद्वीप मे भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत, एरावत ये सात क्षेत्र हैं । विशेषार्थ - भरत क्षेत्र में उत्तर में हिमवान् पर्वत है। पूर्व पश्चिम तथा दक्षिण में लवण समुद्र है। भरत क्षेत्र के बीच में विजयार्ध पर्वत है। वह पूर्व-पश्चिम लम्बा है तथा पच्चीस योजन ऊँचा और पचास योजन चौड़ा है। भूमि से दस योजन ऊपर जाने पर उस विजयार्ध पर्वत के ***+++++++3+++++++++ तत्त्वार्थ सूत्र +++++++++++++++अध्याय दक्षिण तथा उत्तर में दो श्रेणियाँ हैं जिनमें विधाघरों के नगर बसे हुए हैं। वहाँ से और दस योजन जाने पर पर्वत के ऊपर दोनों ओर पुनः दो श्रेणियाँ हैं जिनमे व्यन्तर देव बसते हैं। वहाँ से पाँच योजन ऊपर जाने पर विजयार्घ पर्वतका शिखर तल है, जिस पर अनेक कूट बने हुए हैं। इस पर्वत मे दो गुफाएँ हैं जो आर-पार हैं। हिमवान् पर्वत से गिर कर गंगा-सिन्धु नदी इन्हीं गुफाओं की देहली के नीचे से निकल कर दक्षिण भरत मे आती हैं । विजयार्ध पर्वत तथा इन दोनों नदियों के कारण ही भरत क्षेत्र के छह खण्ड हो गये हैं। तीन खण्ड विजयार्ध के उत्तर में है और तीन खण्ड दक्षिण में हैं। दक्षिण के तीन खण्डों के बीच का खण्ड आर्यखण्ड कहलाता है। शेष पाँचो म्लेच्छ खण्ड हैं। उक्त गुफाओं के द्वारा ही चक्रवर्ती उत्तर के तीन खण्डों को जीतने जाता और लौट कर वापिस आता है। इसी से इस पर्वत का नाम ' विजयार्ध ' है क्योंकि इस तक पहुँचने पर चक्रवर्ती की आधी विजय हो जाती है। उत्तर के तीन खण्डों के बीच के खण्ड में 'वृषभाचल पर्वत' है, उस पर चक्रवर्ती अपना नाम खोद देता है। भरत क्षेत्र की तरह ही अन्त का ऐरावत क्षेत्र भी है। उसमे भी विजयार्ध पर्वत वगैरह हैं। तथा विजयार्घ पर्वत और रक्ता, रक्तोदा नदी के कारण उसके भी छ: खण्ड हो गये हैं। सब क्षेत्रों के बीच में विदेह क्षेत्र है। यह क्षेत्र निषध और नील पर्वत के मध्य में स्थित है। वहाँ मनुष्य आत्म ध्यान के द्वारा कर्मों को नष्ट करके देह के बंधन से सदा छूटते रहते हैं । इसीसे उसका 'विदेह' नाम पड़ा हुआ है। उस विदेह क्षेत्र के बीच मे सुमेरु पर्वत है। सुमेरु के पूर्व दिशा वाले भाग को पूर्व विदेह और पश्चिम दिशा वाले भाग को पश्चिम विदेह कहते हैं। नील पर्वत से निकल कर सीता नदी पूर्व विदेह के मध्य से होकर बहती है और निषध पर्वत से निकल कर सीतोदा नदी पश्चिम विदेह के मध्य से होकर बहती है। इससे इन नदियों के कारण पूर्व विदेह और पश्चिम विदेह के भी दो दो भाग हो गये हैं । इस तरह विदेह के चार भाग हैं। प्रत्येक विभाग में आठ आठ उपविभाग 中 *****64 #*********
SR No.009949
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
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