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________________ DRIVIPULIBOO1.PM65 (28) (तत्त्वार्थ सूत्र ************** अध्याय - प्रति समय अनन्त गुना घटता हुआ उदय जिस काल में होता है तब क्षयोपशम लब्धि होती है। क्षयोपशम लब्धि के प्रभाव से धर्मानुराग रूप शुभ परिणामों का होना विशुद्धि लब्धि है । आचार्य वगैरह के द्वारा उपदेश का लाभ होना देशना लब्धि है। किन्तु जहाँ उपदेश देनेवाला न हो, जैसे चौथे आदि नरकों में वहाँ पूर्व भव में सुने हुए उपदेश की धारणा के बल पर सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है। इन तीनों लब्धि वाला जीव प्रति समय अधिक अधिक विशुद्ध होता हुआ आयु कर्मके सिवा शेष कर्मों की स्थिति जब अन्तः कोटा कोटि सागर प्रमाण बाँधता है और विशुद्ध परिणामों के कारण वह बंधी हई स्थिति संख्यातहजार सागर कम हो जाती है उसे प्रायोग्य लब्धि कहते हैं। पाँचवीं कारण लब्धि में अधःकरण, अपूर्वकर्ण और अनिवृत्तिकरण ये तीन तरह के परिणाम कषायों की मन्दता को लिये हुए क्रमवार होते हैं। इनमें से अनिवृत्ति करण के अंतिम समय में पूर्वोक्त सात प्रकृतियों का उपशम होने से उपशम सम्यक्त्व प्रकट हो जाता है तथा समस्त मोहनीय का उपशम होने से ग्यारहवें गुणस्थान में औपशमिक चारित्र होता है ॥३॥ अब क्षायिक भाव के नौ भेद कहते हैंज्ञान-दर्शन-दान-लाभ-भोगोपभोग-वीर्याणि च ||४|| अर्थ-केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिक दान, क्षायिकलाभ, क्षायिक भोग, क्षायिक उपभोग, क्षायिक वीर्य तथा "च"शब्द से क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र ये नौ क्षायिक भाव हैं। विशेषार्थ- ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म के अत्यन्त क्षय होने से केवलज्ञान और केवलदर्शन होते हैं । दानान्तराय कर्म का अत्यन्त क्षय होने से दिव्यध्वनि वगैरह के द्वरा अनन्त प्राणियों का उपकार करने वाला क्षायिक अभय दान होता है । लाभान्तराय का अत्यन्त क्षय होने से, भोजन न करने वाले केवली भगवान के शरीर को बल देने वाले जो तत्त्वार्थ सूत्र ***************अध्याय - परम शुभ सूक्ष्म नोकर्म पुद्गल प्रति समय केवली के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं, जिनसे केवली का औदारिक शरीर बिना भोजन के कुछ कम एक पूर्व कोटी वर्ष तक बना रहता है, वह क्षायिक लाभ है। भोगान्तराय का अत्यन्त क्षय होने से सुगन्धित पुष्पों की वर्षा, मन्द सुगन्ध पवन का बहना आदि, क्षायिक भोग हैं। उपभोगान्तराय कर्म का अत्यन्त क्षय होने से सिंहासन, तीन छत्र, भामण्डल, आदि का होना, क्षायिक उपभोग है। वीर्यान्तराय कर्म का अत्यन्त क्षय होने से क्षायिक वीर्य होता है। मोहनीय कर्म की ऊपर कही सात प्रकृतियों के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व होता है। समस्त मोहनीय कर्म के अभाव से क्षायिक चारित्र प्रकट होता है; और समस्त मोहनीय कर्म के अभाव से क्षायिक चारित्र प्रकट होता है। यहाँ इतना विशेष जानना कि अरहन्त अवस्था में ये क्षायिक दान वगैरह शरीर नाम कर्म और तीर्थंकर नाम कर्म के रहते हुए होते हैं। इसी से सिद्धों में ये भाव इस रूप में नहीं होते, क्योंकि सिद्धों में किसी भी कर्म का सद्भाव नहीं है। फिर भी जब सिद्धों के सब कर्मों का क्षय हो गया है तो कर्मों के क्षय से होनेवाले क्षायिक दान आदि भाव होने चाहिए ही । इसलिए अनन्तवीर्य और बाधा रहित अनन्त सख के रूप में ही ये भाव सिद्धों में पाये जाते हैं ॥४॥ अब क्षायोपशमिक भाव के अठारह भेद बतलाते हैंज्ञानाज्ञान-दर्शन-लब्धयश्चतुसि-त्रि-पंचभेदा: सम्यक्त्वचारित्र-संयमासंयमाश्च ।।७।। अर्थ- मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय ये चार ज्ञान, कुमति, कुश्रुत, कुअवधि ये तीन अज्ञान, चक्षु इन्द्रिय के द्वारा पदार्थों का सामान्य ग्रहण रूप चक्षु दर्शन, शेष इन्द्रियों के द्वारा पदार्थों का सामान्य ग्रहणरूप अचक्षु दर्शन, और अवधिज्ञान से पहले होनेवाला सामान्य ग्रहण रूप अवधि दर्शन ये तीन दर्शन, अन्तराय कर्म के क्षयोपशम से होनेवाली
SR No.009949
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
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