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________________ D:IVIPULIBO01.PM65 (20) तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय - (तत्त्वार्थ सूत्र ************* अध्याय - बहुत वस्तुओं के ग्रहण करने को बहुज्ञान कहते हैं। बहुत तरह की वस्तुओं के ग्रहण करने को बहुविधज्ञान कहते हैं। जैसे, सेना या वनको एक समूह रूप में जानना बहुज्ञान है और हाथी घोड़े आदि या आम, महुआ आदि भेदों को जानना बहुविध ज्ञान है। वस्तु के एक भागको देखकर परी वस्तुको जान लेना अनिःसृत ज्ञान है । जैसे, जलमें डूबे हुए हाथी की सूंडको देखकर हाथी को जान लेना । शीघ्रता से जाती हुई वस्तुको जानना क्षिप्रज्ञान है। जैसे, तेज चलती हुई रेलगाड़ी को या उसमें बैठकर बाहर की वस्तुओं को जानना । बिना कहे अभिप्राय से ही जान लेना अनुक्त ज्ञान है। बहुत काल तक जैसा का तैसा निश्चल ज्ञान होना या पर्वत वगैरह स्थिर पदार्थ को जानना ध्रुव ज्ञान है। अल्प का अथवा एक का ज्ञान होना अल्प ज्ञान है । एक प्रकार की वस्तुओं का ज्ञान होना एकविध ज्ञान है । धीरे-धीरे चलते हुए घोड़े वगैरह को जानना अक्षिप्र ज्ञान है। सामने विद्यमान पूरी वस्तु को जानना निसत ज्ञान है। कहने पर जानना उक्त ज्ञान है। चंचल बिजली वगैरह को जानना अध्रुव ज्ञान है। इस तरह बारह प्रकार का अवग्रह, बारह प्रकार की ईहा, बारह प्रकार का अवाय और बारह प्रकार का धारणा ज्ञान होता है। ये सब मिलकर ज्ञान के ४८ भेद होते हैं, तथा इनमें से प्रत्येक ज्ञान पाँचों इन्द्रियों और मन के द्वारा होता है। अतः ४८ को छ: से गुणा करने पर मतिज्ञान के २८८ भेद होते हैं ॥१६॥ आगे बतलाते हैं कि ये बहु, बहुविध आदि किसके विशेषण हैं अर्थस्य ||१७|| अर्थ- ये बहु, बहुविध आदि पदार्थ के विशेषण हैं । अर्थात् बहु यानी बहुत से पदार्थ, बहुविध यानी बहुत तरह के पदार्थ । इस तरह बारहों भेद पदार्थ के विशेषण हैं। शंका - इसके कहने की क्या आवश्यकता है? क्योंकि बहु बहुविध तो पदार्थ ही हो सकता है, अन्य नहीं हो सकता, उसीके अवग्रह ईहा आदि ज्ञान होते हैं? __ समाधान - आप की शंका ठीक है; किन्तु (अन्य मतावलम्बियों के मत का निराकरण करने के लिए "अर्थस्य" सूत्र कहना पड़ा है) कुछ मतावलम्बी ऐसा मानते हैं कि इन्द्रियों का सम्बन्ध पदार्थ के साथ नहीं होता, किन्तु पदार्थ में रहनेवाले रूप, रस आदि गुणों के साथ ही होता है। अत: इन्द्रियाँ गुणों को ही ग्रहण करती हैं, पदार्थ को नहीं । किन्तु ऐसा मानना ठीक नही है; क्योंकि वे लोग गुणों को अमूर्तिक मानते हैं और इन्द्रियों के साथ अमूर्तिक का सन्निकर्ष नहीं हो सकता। शंका तो फिर लोक में ऐसा क्यों कहा जाता है- मैंने रूप देखा, मैंने गंध सँघी? समाधान - इसका कारण यह है कि इन्द्रियों के साथ तो पदार्थ का ही सम्बन्ध होता है किन्तु चूँकि रूप आदि गुण पदार्थ में ही रहते हैं, अत: ऐसा कह दिया जाता है। वास्तव में तो इन्द्रियाँ पदार्थ को ही जानती हैं ॥१७॥ आगे बतलाते हैं कि सभी पदार्थों के अवग्रह आदि चारों ज्ञान होते हैं या उसमें कुछ अन्तर है व्यञ्जनस्यावग्रहः ।।१८।। अर्थ-व्यंजन अर्थात् अस्पष्ट शब्द वगैरह का केवल अवग्रह ही होता है, ईहा आदि नहीं होते। विशेषार्थ - स्पष्ट पदार्थ के अवग्रह को अर्थावग्रह कहते हैं और अस्पष्ट पदार्थ के अवग्रह को व्यंजनावग्रह कहते हैं। जैसे, श्रोत्र इन्द्रिय में एक हल्की सी आवाज का मामूली सा भान होकर रह गया। उसके बाद फिर कुछ भी नहीं जान पड़ा कि क्या था? ऐसी अवस्था में केवल व्यंजनावग्रह ही होकर रह जाता है। किन्तु यदि धीरे धीरे वह आवाज स्पष्ट हो जाती है तो व्यंजनावग्रह के बाद अर्थावग्रह और फिर ईहा आदि ज्ञान **** * **150 **********
SR No.009949
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
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