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________________ DEVIPULIBOO1.PM65 (16) तत्त्वार्थ सूत्र ************** अध्याय - ज्ञान कराया जाता है उसे परार्थ प्रमाण कहते हैं । इसी से परार्थ प्रमाण वचनरूप होता है; क्योंकि ज्ञान के द्वारा ज्ञाता स्वयं जानकर वचन के द्वारा दूसरों को ज्ञान कराता है । आगे ज्ञान के पाँच भेद बतलाये हैंमतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्यय ज्ञान और केवलज्ञान । इनमें से श्रुतज्ञान के सिवा शेष चार ज्ञान तो स्वार्थ प्रमाण ही हैं। क्योंकि वे मात्र ज्ञानरूप ही हैं; परंतु श्रुतज्ञान ज्ञानरूप भी है और वचनरूप भी है। अतः श्रुतज्ञान स्वार्थ भी है और परार्थ भी है। ज्ञानरूप श्रुतज्ञान स्वार्थ प्रमाण है, और वचनरूप श्रुतज्ञान परार्थ प्रमाण है । जैसे, तत्त्वार्थसूत्र के ज्ञाता को तत्त्वार्थ सूत्र में वर्णित विषयों का जो ज्ञान है वह ज्ञानात्मक श्रुत होने से स्वार्थप्रमाण है । जब वह ज्ञाता अपने वचनों के द्वारा दूसरों को उन विषयों का ज्ञान कराता है वह वचनात्मक श्रुत परार्थ प्रमाण है। इस श्रुतज्ञान के ही भेद नय है ॥६॥ अब प्रमाण और नय के द्वारा जाने गये जीव आदि तत्वों को जानने का अन्य उपाय बतलाते हैं। निर्देश-स्वामित्व-साधनाधिकरण-स्थिति-विधानतः ॥७// अर्थ- निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधानइन छह अनुयोगों के द्वारा भी सम्यग्दर्शन आदि तथा जीव आदि पदार्थों का ज्ञान होता है । जिस वस्तु को हम जानना चाहते हैं उसका स्वरूप कहना निर्देश है। स्वामित्व से मतलब उस वस्तु के मालिक से है। वस्तु के उत्पन्न होने के कारणों को साधन कहते हैं। वस्तु के आधार को अधिकरण कहते हैं । काल की मर्यादा का नाम स्थिति है। विधान से मतलब उसके भेदों से है। इस तरह इन छह बातों के द्वारा उस वस्तु का ठीक-ठीक ज्ञान हो जाता है। विशेषार्थ-वस्तु को हम जानते तो प्रमाण और नय से ही हैं। किन्तु उसके जानने में उपर बतलाई गई छ: बातें उपयोगी होती हैं, उनसे उस (तत्त्वार्थ सूत्र ***************अध्याय - वस्तु की पूरी जानकारी होने में सहायता मिलती है । जैसे हम यदि सम्यग्दर्शन को जानना चाहते हैं तो उसके विषय में छ: अनुयोग इस प्रकार घटना चाहिए - तत्त्वार्थ के श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं, यह निर्देश है। सम्यग्दर्शन का स्वामी जीव होता है। सम्यग्दर्शन के साधन दो हैं- अन्तरंग और बहिरंग । अंतरंग साधन अथवा कारण तो दर्शन मोहनीय कर्म का उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम है और जिन धर्म का सनना, जिन बिम्ब का दर्शन, जातिस्मरण वगैरह बहिरंग साधन हैं। अधिकरण भी दो हैं- अन्तरंग और बहिरंग । सम्यग्दर्शन का अन्तरंग अधिकरण या आधार तो आत्मा ही है; क्योंकि सम्यग्दर्शन उसी को होता है । और बहिरंग आधार त्रस नाड़ी है। क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव त्रस्त नाड़ी में ही रहते हैं उससे बाहर नहीं रहते । सम्यगदर्शन की स्थिति कम से कम एक अंतर्मुहूर्त मात्र है, और अधिक से अधिक सादि अनन्त है, क्योंकि क्षायिक सम्यक्त्व एक बार प्राप्त होने पर कभी नहीं छूटता और मुक्त हो जाने पर भी बना रहता है। सम्यग्दर्शन के दो भेद भी हैं- निसर्गज और अधिगमज। तथा तीन भेद भी हैं औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक । इसी तरह ज्ञान, चारित्र और जीव आदि पदार्थों में निर्देश आदि लगा लेना चाहिए ॥७॥ जीव आदि को जानने के और भी उपाय बतलाते हैंसत्संख्या-क्षेत्र-स्पर्शन-कालान्तर-भावाल्पबहुत्वैश्च ||८|| अर्थ - सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व, इन आठ अनुयोगों के द्वारा भी जीव आदि पदार्थों का ज्ञान होता है । सत् का अर्थ अस्तित्व या मौजूदगी है । भेदों की गिनती को संख्या कहते हैं। वर्तमान निवास को क्षेत्र कहते हैं। तीनों कालों में विचरने के क्षेत्र को स्पर्शन कहते हैं । काल का मतलब सभी जानते हैं । विरह काल को अन्तर कहते हैं । अर्थात् एक दशा से दूसरी दशा को प्राप्त करके
SR No.009949
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
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