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________________ DIVIPULIBOO1.PM65 (105) (तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय .) ईर्या- भाषैषणादान-निक्षेपोत्सर्गाः समितयः ।।७।। अर्थ - ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेप और उत्सर्ग ये पाँच समितियाँ हैं। यहाँ पूर्व सूत्र से 'सम्यक' पद की अनुवृति होती है; अतः पाँचो में सम्यक् पद लगा लेना चाहिये । अर्थात सम्यक् ईर्या, सम्यक् एषणा, सम्यक् आदान निक्षेप और सम्यक् उत्सर्ग । सूर्य का उदय हो जाने पर जब प्रकाश इतना फैल जाये कि आँखो से प्रत्येक वस्त साफ दिखायी देने लगे, उस समय मनुष्य के पद संचार से जो मार्ग प्रासुक हो उस मार्ग पर चार हाथ जमीन आगे देखते हुए, सब ओर से मन को रोक कर धीरेधीरे गमन करना ईर्या समिति है । हित-मित और सन्देह रहित वचन बोलना भाषा समिति है। अर्थात मिथ्या वचन, निन्दापरक वचन, अप्रिय वचन, कषाय के वचन, भेद डालने वाले वचन, निस्सार अथवा अल्प सारवाले वचन सन्देह से भरे हुए वचन, भ्रम पैदा करनेवाले वचन, हास्य वचन, अयुक्त वचन, असभ्य वचन, कठोर वचन, अधर्मपरक वचन और अति प्रशंसा परक वचन साधु को नही बोलना चाहिये । दिन में एक बार श्रावक के घर जाकर नवधाभक्तिपूर्वक तथा कत,कारित, अनुमोदना आदि दोषों से रहित दिया हुआ निर्दोष आहार खड़े हो कर अपने पाणि पात्र मे ही ग्रहण करना एषणा समिति है। शास्त्र, कमण्डल आदि धर्म के उपकरणों को देख भालकर तथा पीछी से साफ करके रखना उठाना आदान निक्षेपण समिति है। त्रस और स्थावर जीवों को जिससे बाधा न पहुंचे इस तरह से शुद्ध जन्तु रहित भूमि में मल मूत्र आदि करना उत्सर्ग समिति है। इस तरह ये पाँचो समितियाँ संवर की कारण हैं। शंका-ये समितियाँ तो वचन गुप्ति और कायगुप्ति के ही अन्तर्भूत हैं, इन्हें अलग क्यों कहा? समाधान - काल का प्रमाण करके समस्त योगों का निग्रह करना तो गुप्ति है, और जो अधिक समय तक गुप्ति का पालन करने में असमर्थ तत्त्वार्थ सूत्र *************** अध्याय - हैं उनका शुभ क्रियाओं में सावधानी पूर्वक प्रवृति करना समिति है। यही दोनों में भेद है ॥५॥ अब दस धर्मों को कहते हैं - उत्तमक्षमा-मार्दवाडव-सत्य-शौच-संयमतपस्त्यागा-किंचन्य-ब्रहाचर्याणि धर्म: ||६|| अर्थ - उत्तमक्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम सत्य, उत्तम शौच, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य और उत्तम ब्रह्मचर्य, ये दस धर्म के भेद हैं । क्रोध की उत्पति के निमित्त होते हुए भी परिणामों में मलिनता न होना क्षमा है। उत्तम जाति, कल, रूप, विज्ञान, ऐश्वर्य वगैरह के होते हुए भी उनका घमण्ड नही करना मार्दव है। मन, वचन और काय की कुटलिता का न होना आर्जव है। लोभ का अत्यन्त अभाव शौच है। लोभ चार प्रकार का होता है- सज्जन पुरुषों के बीच में हित मित वचन बोलना सत्य धर्म है । जीवन का लोभ, नीरोगता लोभ. इन्द्रियो का लोभ और भोग्य सामग्री का लोभ । इन चारों ही लोभों का अभाव होना शौच धर्म है। ईर्या समिति वगैरह का पालन करते समय एकेन्द्रिय आदि जीवों को पीड़ा न पहुँचाना प्राणि संयम है और इन्द्रियों के विषयों में राग का न होना इन्द्रिय संयम है। इस तरह संयम दो प्रकार का है। कर्मों का क्षय करने के लिये अनशन आदि करना तप है। चेतन और अचेतन परिग्रह को छोडना त्याग है, शरीर वगैरह से भी ममत्व न करना आकिंचन्य है। पहले भोगी हुई स्त्री को स्मरण न करके तथा स्त्री मात्र की कथा के सुनने से विरत होकर स्त्री से संयुक्त शय्या आसन पर भी न बैठना और अपनी आत्मा में ही लीन रहना ब्रह्मचर्य है। ये दस धर्म संवर के कारण हैं। इनके पहले जो उत्तम विशेषण लगाया है वह यह बतलाने के लिये लगाया है कि किसी लौकिक प्रयोजन की सिद्धि के लिये क्षमा आदि को अपनाना उत्तम * *** *4185 * *** * ** ***** ** *1860
SR No.009949
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
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