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________________ D:\VIPUL\BO01. PM65 (101) तत्त्वार्थ सूत्र +******++ अध्याय अब मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति कहते हैंसप्ततिर्मो हनीयस्य ||१७|| अर्थ - मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोडी सागर प्रमाण है । यह उत्कृष्ट स्थिति भी सैनी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक मिथ्याद्दष्टि जीव के ही होती है ॥ १५ ॥ अब नाम और गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति कहते हैं - विंशतिर्नामगोत्रयोः ||१६|| अर्थ - नाम और गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागर प्रमाण है। यह उत्कृष्ट स्थिति भी सैनी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक मिथ्याद्दष्टि जीव के ही होती है ॥ १६ ॥ अब आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति कहते हैं त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुष: ||१७|| अर्थ- आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस सागर प्रमाण है। यह स्थिति संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तक के ही होती है ॥ १७ ॥ अब जधन्य स्थिति-बन्ध को बतलाते हुए पहले वेदनीय की जधन्य स्थिति बतलाते हैं अपरा द्वादशमुहूर्ता वेदनीयस्य ||१८|| अर्थ- वेदनीय कर्म की जधन्य स्थिति बारह मुहुर्त है। यह स्थिति सूक्ष्म साम्पराय नाम के दसवें गुण स्थान मे ही बँधती है ॥१८॥ अब नाम और गोत्र की जधन्य स्थिति कहते हैं नामगोत्रयोरष्टौ ||१९|| अर्थ - नाम और गोत्र कर्म की जघन्य स्थिति आठ मुहुर्त है। यह भी *****++++++177 +++++++++++ तत्त्वार्थ सूत्र +++++अध्याय सूक्ष्म साम्पराय गुण स्थान मे ही बंधती है ॥ १९ ॥ अब शेष पाँच कर्मों की जघन्य स्थिति कहते हैं शेषारणामन्तर्मुहुर्ता ||२०|| अर्थ - ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, आयु और अन्तराय कर्म की जघन्य स्थिति अन्तमुहुर्त है। इनमें से मोहनीय की जधन्य स्थिति नौवें गुणस्थान में ही बंधती है। आयु की जघन्य स्थिति संख्यात वर्ष की आयुवाले कर्मभूमियाँ मनुष्य और तिर्यञ्चों के बंधती है। शेष तीन कर्मों की जघन्य स्थिति सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान में बंधती है ॥२०॥ इस तरह स्थिति बन्ध को कहकर अब अनुभव बन्ध को कहते हैं विपाकोऽनुभवः ||२१|| अर्थ - विशिष्ट अथवा नाना प्रकार के पाक यानी उदय को विपाक कहते हैं । और विपाक को ही अनुभव कहते हैं। विशेषार्थ - छठे अध्याय में बतलाया है कि कषाय की तीव्रता या मन्दता के होने से कर्म के आस्रव में विशेषता होती है और उसकी विशेषता से कर्म के उदय में अन्तर पडता है। अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भवके निमित्त से भी कर्म के फल देने में विविधता होती है । अतः कर्म जो अनेक प्रकार का फल देता है उस फल देने का नाम ही अनुभव या अनुभाग है। शुभ परिणामों की अधिकता होने से शुभ प्रकृतियों में अधिक रस पड़ता है और अशुभ प्रकृतियों में मन्द रस पड़ता है । तथा अशुभ परिणामों की अधिकता होने से अशुभ प्रकृतियों में अधिक रस पड़ता है और शुभ प्रकृतियों का मन्द रस पड़ता है। इस तरह परिणामों की विचित्रता से अनुभाग बन्ध में भी अन्तर पड़ता है। कर्मों का यह अनुभाग दो रूप से होता है एक स्वमुख से और दूसरे परमुख से । ++++++178++++++ *
SR No.009949
Book TitleTattvartha Sutra
Original Sutra AuthorUmaswati, Umaswami
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherPrakashchandra evam Sulochana Jain USA
Publication Year2006
Total Pages125
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Tattvartha Sutra
File Size3 MB
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