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________________ (६४) समयसारखष्टान्तमम १८६-जो जीव सर्व परभावोंसे भिन्न शुद्ध चैतन्यमात्र समयसार की प्रतीति नहीं कर सकता वह वाह्य दुर्धर तप, व्रतके अनुष्ठान करके भी निर्वाण प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि आत्मविकास वाह्यक्रियापर निर्भर नहीं है । अज्ञान भावके होनेपर अध्यवसान होते ही हैं। वह सब अध्यवसान बन्धका ही कारण है । अब यहां प्रश्न यह हो सकता है कि इन रागादि अध्यवसानोंके होनेमें निमित्त क्या है, क्या आत्मा निमित्त है अथवा परपदार्थ ? उत्तर-जैसे स्फटिक मणि अपने आप स्वच्छ है वह ललाई आदि रंग रूप यों ही आप नहीं परिणम जाता है, किन्तु लाल आदि पर द्रव्योंके सम्बन्धके निमित्तसे लाल आदि रंग रूप परिणमता है। इसी प्रकार ज्ञायक आत्मा अपने आप शुद्ध है वह रागादिरूप यों ही आप नहीं परिणम जाता है, किन्तु रागादि प्रकृति वाले कर्मरूप परद्रन्यके उदयके निमित्तसे रागादिरूप परिणमता है। १८७-तथा जैसे लोकमें अनेक बातें निमित्तनैमित्तिकताको सिद्ध करती हैं वैसे यहां शगादिभावमें निमित्तनैमित्तिकता जाननी । यदि परद्रव्य निमित्त नहीं होता तो द्रव्य-प्रत्याख्यान व भाव-प्रत्याख्यान ये दो भेद ही कैसे बनते । द्रव्यका (वाह्य वस्तुका) जो त्याग नहीं करता वह तद्विषयक भावका भी त्याग नहीं कर सकता । इससे निमित्तनैमित्तिकता तो परके साथ बन गई । जैसा खावे अन्न तैसा होवे मन इसमें भी तो परद्रव्यका निमित्तपना आया । जैसे पापनिष्पन्न अथवा उद्दिष्ट आहारको जब कोई नहीं छोड़ता तो वह बन्ध साधक भावको भी नहीं छोड़ता। इसी प्रकार आत्माके रागादि भाव होनेमें कर्म परद्रव्य निमित्त है। कर्म परद्रव्य संयोग छूटे रागादि भी छूट जाते हैं। १८-कर्म पर द्रव्य कैसे छूटते हैं यह आखिरी एक समस्या है ? उसका हल यह है कि कर्मवन्ध होता है परके कर्ता या कराने वाले या अनुमोदना करने वाले बननेके आशयसे, सो सर्व पर द्रव्योंका मात्र ज्ञाता रहे, न आशयमें कर्ता बने न कारयिता बने न अनुमोदयिता बने तो कर्मवन्ध हट जाता है । जेसे आहारका न कर्ता बने न कारयिता बने
SR No.009948
Book TitleSamaysara Drushtantmarm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManohar Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1960
Total Pages90
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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