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________________ अथ कर्माधिकारः (४३) की तरह चेष्टावाला हो जाता है । इस तरह निश्चयसे जीवविभावका कर्ता जीव हुआ। १२१-यदि जीव ज्ञानी है तो वह ज्ञानमयभावका कर्ता होता है, दि अज्ञानी जीव है तो अज्ञानमय भावका कर्ता होना है, क्योंकि ज्ञानी आत्मासे ज्ञानमय ही भाव होते, अज्ञानी आत्मासे अज्ञानमय ही भाव होते हैं । जैसे कि सुवर्णसे बनने वाले आभूषण सुवर्णमय ही होते हैं मौर लोहेसे बनने वाले कड़े आदि लोहेमय ही होते हैं। १२२-जीवका परिणमन पुद्गल द्रव्यसे पृथक् है और पुद्गल द्रव्यका परिणमन जीवसे पृथक है। यदि निमित्तभूत उदय-प्राप्त पुद्गल कर्मके साथ ही जीवका रागादि परिणाम हो जावे तो जीव व पुद्गल कर्म इन दोनों में ही रागादि अज्ञानका परिणमन होना चाहिये । जैसे कि मिलाये गये चूना और हल्दी इन दोनोंमे ललाईका परिणमन हो जाता है । किन्तु, यहां तो अकेले जीवमे ही रागादि अज्ञानका परिणमन होता है, इससे यह वात सिद्ध ही है कि जीवका रागादि परिणमन निमित्तभूत , पुद्गलकर्मसे पृथक ही है। १२३-इसी तरह यदि निमित्तभूत रागादि अज्ञान परिणत जीव के साथ ही पुद्गल द्रव्यका कर्म परिणमन हो जाय तो पुद्गल द्रव्य और जीव इन दोनोंका कर्मपरिणमन होना पड़ेगा । जैसे कि मिलाये गये हल्दी व चूना इन दोनोंका एक साथ ललाईका परिणमन हो जाता है। किन्तु कर्मत्र परिणमन अकेले पुद्गल द्रव्यका ही होता है, अतः पुद्गल द्रव्यका कर्मपरिणमन निमित्तभूत जीवविभावसे पृथक ही है। १२४-अथवा अभिन्न क कर्मताका विकल्प भी व्यवहारनय है और अकर्ताका अभिप्राय निश्चयनय है । तिस पर भी कर्ताका विकल्प करना या अकर्ताका विकल्प करना ये दोनों नयपक्ष हैं, दोनों विकल्प इन्द्रजालवत् असार हैं । जैसे इन्द्रजालका रूप रंग आदि सब दिखनेमात्र को है, अध्र व है, इसी प्रकार ये भी समस्त विकल्प कल्पनामात्र हैं, अध्रुव हैं। जो इन दोनों (समस्त) प्रकारके विकल्पोसे थानेसमस्त नयपक्षोंसे परे हो
SR No.009948
Book TitleSamaysara Drushtantmarm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManohar Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1960
Total Pages90
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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