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________________ ' अथ कर्तकर्माधिकारः (१७) ४४-जैसे अनेक अवयवों पाले काठको विभागयोग्य जानकर कुशल कारीगर उस संधिपर नहांसे विभाग होना है, करौंतको वार वार चलाता है, उसके फलस्वरूप उन भागोंका विघटन हो जाता है, फिर करौंत चलानेकी आवश्यकता नहीं और वहां कौंत जगमगाती स्वतन्त्र अपनी शोभा रखने लगती है। वैसे ही जीव अजीव इन अनेक द्रव्योंके इस पिण्डको विभागयोग्य जानकर ज्ञानी भेद विज्ञानका वार वार अभ्यास करता है और प्रयोग करता है, उस संधि पर जहाँसे जीव अजीवका विभांग होना है । इसके फलस्वरूप जीव अजीवका स्पष्ट विघटन हो जाता है, फिर भेदविज्ञानके अभ्यासकी आवश्यकता नहीं, वहां नो अव अभेदस्वभाव आत्माके निर्विकल्प अनुभवसे यह आत्मद्रव्य बड़े वेगसे उत्कृष्टरूपसे प्रकाशमान चकासमान हो जाता है। इस तरह जीव और अजीव जो रंगभूमिमें वेश धर कर नांच रहे थे वे पृथक् होकर निकल जाते हैं, स्वतन्त्र अनुभव में आ जाते हैं। इति जीवाजीवाधिकार समाप्त अथ कर्तृकर्माधिकारः . ४५-जीव परिणमनशील है, वह परिणमता रहता है परन्तु उपाधिके निमित्तसे तो विभावरूप (क्रोधादिरूप) परिणम जाता है और उपाधिका निमित्त न बनने पर स्वभावको अनुरूप परिणम जाता है। • जीव जव विभाव परिणामोंमें कतृत्वबुद्धि करता है अथवा उनमें आत्मबुद्धि करता है, तब वह कर्मोके महान् बन्धन बना लेता है। वही जीव अन्तरात्मा होकर जब निज ध्र व स्वभावमें और विभावमें अन्तर जान लेता है और कर्तत्वबुद्धि दूर कर लेता है, तव कर्मोका बन्धन दूर होता है । यह भेदविज्ञान किस प्रकार होता है ? जैसे-जलमें काई है वह जलका तो स्वभाव है नहीं, जलमें केवल वह गन्दगीरूप है सो गन्दी काई है, जल गन्दा नहीं हैं । इसी प्रकार जीव
SR No.009948
Book TitleSamaysara Drushtantmarm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManohar Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1960
Total Pages90
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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