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________________ अथ जीवाजीवाधिकार (१३) बना है, वह तो मरा नहीं केवल यह वेश और प्रदर्शन किया जा रहा है" वह दुखी नहीं होता । इसी प्रकार जिसे निज अचल चैतन्य ज्योतिका परिज्ञान हो गया है, वह इन संसारके क्लेशोंको देखकर अधीर व कुल नहीं हो जाता है, क्योंकि वह जानता है कि आत्मा चैतन्यमात्र है, यह , परिणमन इसका अध्रुव वेश है। ३३-प्रश्न-जैसे अंगार-कोयलासे कालिमा अलग नहीं है, इसी प्रकार प्राकृतिक राग द्वेषसे मलिन अध्यवसान परिणामसे मिन्न आत्मा नहीं है या कमसे जीव अलग नहीं है या अध्यवसानकी संतविसे जीव अलग नहीं है या पुण्य पाप या साता असातासे या शरीरसे जीव अलग नहीं है । उत्तर-राग, द्वेष, कर्म, कर्मोदय आदि जिन जिन बातोंको जीव । मान लिया है वे सव पुद्गलद्रव्यके परिणाम हैं व औपाधिक हैं, वे सब चैतन्यशून्य हैं । ज्ञानी जीवाने पुद्गलद्रव्यके व उनके उन सव परिणमनों से भिन्न चैतन्यमात्र जीवद्रव्यको पाया है; अनुभवा है। उक्त बातोंमे आगम युक्ति स्वानुभव तीनोंसे वाधा आती है। पुद्गलके परिणमनोंसे आत्मा ऐसे भिन्न है जैसे कि किट्ट कालिमासे सुवर्ण भिन्न है।। - ३४-अज्ञानी पुनः प्रश्न करता है कि जैसे शिखरिणी दही शक्करकी मिलकर एक है, इसी तरह आत्मा.और कर्म मिलकर ही जीव है, हमें तो यही समझमें आना है। उत्तर-जैसे सुवर्ण विट्ट कालिमासे अलग है। वैसे जीव पुद्गल कर्मसे अत्यन्त अलग है, त्रिकालमें भी आत्मा और कर्म एकरूप नहीं हो सकते। ३५-अज्ञानी पुनः प्रश्न करता है कि जैसे पाया ४ सीरा २ पाटी २ इस प्रकार ८ काठसे अतिरिक्त अन्य कोई खाट नहीं है, वैसे ही ८ कर्मोसे अतिरिक्त अन्य कोई जीव नहीं है, आठ कर्मोंका संयोग ही जीव है । उत्तर-जैसे खाटपर सोने वाला पुरुष खाटसे भिन्न है, वैसे आठ कर्मोंके संयोगसे भिन्न चैतन्यस्वभाव जीव द्रव्य अलग है, ऐसा भेद ज्ञानियोंने स्वयं प्राप्त किया है। ३६-सिद्धान्त अन्थोंमें जो त्रस स्थावर आदिको जीव कहा है,
SR No.009948
Book TitleSamaysara Drushtantmarm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManohar Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1960
Total Pages90
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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