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________________ सहजानन्दशास्त्रमालायां देखा जावे तो वह संयुक्तता नहीं है स्वभावरूप है। वैसे कमविपाकके निमित्तसे होने वाले मोहके सम्बन्धकी दृष्टिसे देखा जावे आत्मामें संयुक्तता है, कुछ मिला है, किन्तु केवल परमार्थ आत्मस्वभाव चैतन्यकी दृष्टि से देखा जाये तो संयुक्तता नहीं है, आत्मा स्वभावमात्र है। १४-श्रात्मा परमार्थसे सहज चैतन्यस्वरूप है, सहजज्ञानमात्र है। वह यद्यपि नित्य प्रकट है, तो भी सहजज्ञानकी परिणतिमें जो ज्ञय होता है उसमें लोभी हो जानेसे मुग्ध जीवोंको निज स्वभावका स्वाद नहीं रहता है । जैसे-नाना प्रकारकी शाकोंमें नमक पड़ा हुआ है, शाकके खानेके समय नमकका भी स्वाद आ रहा है, परन्तु शाकमें आसक्ति होनेसे शाक विशेषपर ही दृष्टि है सो नमकका तिरोभाव होनेसे लोभी शाकविशेषरूपसे नमकको स्वादता है किन्तु नमकका प्रक्ट स्वाद नहीं ले सकता है। वही पुरुप यदि केवल नमककी डलीका रवाद ले तो सर्व व्यजनोंकी दृष्टि न होनेसे प्रकट नमकका स्वाद लेता है। वैसे-नाना जयोंमें उपयोग आसक्ति होनेसे यद्यपि स्वाद ज्ञानका ही है तथापि शेयकी ओर चष्टि होनेसे, विशेषका ही प्रकाश होनेसे ज्ञानका स्वाद मोही जीवको नहीं प्राप्त होता, किन्तु ज्ञयके स्वादको कल्पनामे ही वेसुध रहना है । यही जीव यदि सर्वसे भिन्न केवल ज्ञानमात्र आत्माको अनुभवे तो विशेप, विकल्पोंका 'तिरोभाव हो जानेसे अनासक्त उदासीन उस ज्ञानीको प्रकट आत्माका अनुभव, स्वाद आता है। १५-ज्ञानीको जिसका अनुभव होता है वह दर्शन ज्ञान चारित्रात्मक एक निज आत्मा है । प्रात्माके दर्शन (श्रद्धान) ज्ञान, चारित्र भिन्न नहीं है। जैसे किसी देवदत्तनामके पुरुपका जो श्रद्धान ज्ञान आचरण है वह सव देवदत्तसे भिन्न किसी अन्य पुरुप या जड़में नहीं है क्योकि वे देवदत्तके स्वभाव हैं इसी तरह आत्माके दर्शन ज्ञान चारित्र आत्मासे भिन्न नहीं हैं । दर्शन ज्ञान चारित्रकी उपासना करो ऐसा भेदरूप उपदेश ह. है, वास्तवमे यह अखण्ड निज एक आत्मा ही उपास्प है। १६-इस निज अखण्ड आत्माकी उपासनासे होनेवाले मोक्षकी
SR No.009948
Book TitleSamaysara Drushtantmarm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManohar Maharaj
PublisherSahajanand Shastramala
Publication Year1960
Total Pages90
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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