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________________ ३६] श्रीप्रवंचनसारंटींका । उपयोग और निर्विकल्प समाधिमई योग इन दोनोंकी शुद्धि सहित होता है (३) निर्मल आत्मानुभवकी परिणति होनेसे परद्रव्यकी सहायता रहित होता है (४) वारबार जन्म धारणको नाश करने- ' वाले शुद्ध आत्माके परिणामोंके अनुकूल पुनर्भव रहित मोक्षका कारण होता है (५) व जिन भगवान सम्बंधी अथवा जैसा जिनेंद्रने कहा है वैसा होता है । इस तरह जैन साधुके द्रव्य और भाव लिंगका स्वरूप जानना चाहिये। ___ भावार्य-आचार्यने पूर्व गाथामें मुनिपदकी जो अवस्था बताई थी उसीको विशेषरूपसे इन दो गाथाओंमें वर्णन किया गया है। मुनिपदके दो प्रकार चिन्ह होते हैं एक बहिरंग दूसरे अन्तरङ्ग। इन्हींको क्रमसे द्रव्य और भाव लिंग कहते हैं । वाहरके लिंगके पांच विशेषण यहां वताए हैं । पहला यह कि मुनि जन्मके समय नग्न बालकके समान सर्व वस्त्रादि परिग्रहसे रहित होते हैं इसीको यथाजातरूप या निग्रंथरूप कहते हैं। दूसरा चिन्ह यह है कि मुनिको दीक्षा लेते समय अपने मस्तक डाढ़ी मूछोंके केशोंका लोच करना होता है वैसे ही दो तीन या चार मास होनेपर भी लोच करना होता है । इसलिये उनका वाहरी रूप ऐसा मालूम होता है मानो उन्होंने स्वयं अपने हाथों हीसे घासके समान केशोंको उखाड़ा है। लोच करना मुनिका आवश्यक कर्तव्य है । जैसा मूलाचारजीमें कहा है: वियतियचउक्कमासे लोचो उकस्स मज्झिमजहण्णो । सपडिक्कमणे दिवसे उववासे णेव कायव्वो ॥ २६ ॥ (मूलगुण अ०)
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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