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________________ श्रीप्रवचनसारटीका। है । इसीसे ही साधुको परमानन्दका स्वाद आता है । इसी भावसे ही पूर्ववद्ध कर्मोकी निर्जरा होती है । श्री समयसार कलशमें श्री अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं:--- विश्वाद्विभक्तोऽपि हि यत्प्रभावादात्मानमात्मा विदधाति विश्वम्। मोहककन्दोऽध्यवसाय एष नास्तोह येषां यतयस्त एव ॥१०-७॥ भावार्थ-यह आत्मा सर्व विश्वसे विभिन्न है तो भी जिस मोहके प्रभावसे यह मूढ़ होकर विश्वको अपना कर लेता है। वह मोहकी जड़से उत्पन्न हुआ मोह भाव जिनके नहीं होता है वे ही वास्तवमें साधु हैं । इस अद्वैत खानुभवरूप भाव साधुपनेकी भावना निरन्तर करना साधुका कर्तव्य है। इसी भावनाके वलसे वह पुनः पुनः स्वानुभवका लाम पाया करता है । समयसारकलशमें उसी भावनाके भावको इस तरह बताया है:ख्यावाददोपितलसन्महसि प्रकाशे शुद्धस्वभावमहिमन्युदिते मयोति । किं बंधमोक्षपथपातिभिरल्यमाव नित्योदयः परमयं स्फुरतु स्वभावः ॥ २३/११ ॥ भावार्थ जब मेरेमें शुद्ध आत्मस्वभावकी महिमा प्रगट हो गई है, जहां स्याहादसे प्रकाशित शोभायमान तेज झलक रहा है तब मेरेमें बंध मार्ग तथा मोक्षमार्गमें ले जानेवाले अन्य भावोंसे क्या प्रयोजन मेरेमें तो वही शुद्धस्वभाव नित्य उदयरूप प्रकाशमान रहो। स्वात्मानन्दका भोग उपयोगमें होना ही निश्चयसे साधुपना है। विना इसके मोक्षका साधन हो नहीं सक्ता ।
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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