SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४] श्रीप्रवचनसारटीका । मेरे इस आत्मद्रव्यमें परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल तथा परभावोंका नास्तित्त्व है । मैं अस्तिनास्ति स्वरूप होकर ही सबसे निराला अपनी शुद्ध सत्ताका धारी एक आत्मद्रव्य हूं। ऐसा निर्ममत्त्व भाव जिसके मन वचन तनमें कूट कूटकर भर जाता है वही साधु है | श्री समयसारजीमें साधुके निर्ममत्त्वभावमें श्री कुन्दकुन्दआचार्यने इस तरह कहा है अहमिको खलु सुद्धो, सणणाणमइओ सया रूवी। णवि अत्थि मम किंचिव अण्णं परमाणुमित्तं वि ॥४॥ भावार्थ-मैं प्रगटपने एक अकेला हूं, शुद्ध हूं, दर्शनज्ञान स्वभाववाला हूं और सदा अरूपी या अमूर्तीक हूं। मेरे सिवाय अन्य परमाणु मात्र भी कोई वस्तु मेरी नहीं है। श्री मूलाचारमें कहा है कि साधु इस तरह ममतारहित होजावे । ममत्ति पखिजामि णिम्ममत्तिमुवद्विदो। आलंवर्ण च मे आदा अवसेसाई वोसरे ॥ ४५ ॥ आदा हु सन्म णाणे आदा मे देसणे चरित्ते य। आदा पच्चक्खाणे आदा मे संघरे जोए ॥ ४६ ॥ भावार्थ-मैं ममताको त्यागता हूं और निर्ममत्त्व भावमें प्राप्त होता हूं। मेरा आलम्वन एक मेरा आत्मा ही है । मैं और सबको त्यागता हूं। निश्चयसे मेरे ज्ञान, दर्शन, चारित्र, प्रत्याख्यान, संवर तथा जोगमें एक आत्मा ही है अर्थात्, मैं आत्मस्थ होता हूं वहीं ये ज्ञान दर्शनादि सभी गुण प्राप्त होते हैं । श्री अमितिगति आचार्यने बृहत् सामायिकपाठमें कहा है
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy