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________________ Wwwmumarimum MAR तृतीय खण्ड .३३ अवैतु शास्त्राणि नरा विशेषतः करोतु:चित्राणि तपसि भावतः। अतस्वसंसक्तमनास्तापिनो विमुक्त सौख्यं गतवाँधमभुते ॥१४४ भावार्थ कोई चाहे क्षमादि देश'प्रकार धर्मको पालो व निर्दोष भिक्षासे भोजन ग्रहण करों, व चित्तके विस्तारको रोककर ध्यान करो तथापि मिथ्यात्त्व सहित जीव कमी मुक्ति नहीं पासक्ता है । तरहर से चार प्रकार दान चाहे देओ, अनि भक्तिसे अर्हतों की 'भक्ति करो, शील पालो, उपवास करो तथापि मिथ्यादृष्टी सिद्धि 'नहीं पासक्ता है । कोई मनुष्य चाहे खूब शास्त्रोंको जानो व भावसे नाना प्रकार तपस्या करो तथापि निसका मन मिथ्यातत्त्वोंमें आसक्त है वह कभी भी बाधारहित मोक्षके आनन्दको नहीं भोग सक्ता है। विचित्रवर्णाञ्चितचित्रमुत्तमं यथा गताक्षो न जनो विलोक्यते । 'प्रदयमानं न तथा प्रपद्यते कुदृष्टिजोवो जिननाथशासनम् ॥१४५ भावार्थ-जैसे नाना प्रकार वर्णोसे. रचित उत्तम चित्रको अंधा पुरुष नहीं देख सका है वैसे ही मिथ्यादृष्टी जीव जिनेन्द्रके शासनको अच्छी तरह समझाए जानेपर भी नहीं श्रद्धान करना है। वास्तवमें जब तक नित्य अनित्त्य, एक अनेक आदि स्वभावमई सामान्य विशेष गुण रूप आत्माका गुणपर्याय रूपसे व उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूपसे श्रद्धान नहीं होगा तथा अंतरंगमें निजात्मानन्दका स्वाद नहीं प्रगट होगा, तबतक मिथ्यादर्शनके विकारसे नहीं छूटता हुआ यह जीव कभी भी सुख शांतिके मार्गको नहीं पासक्ता है । यही संसार तत्व है। श्री कुलभद्राचार्य सारसमुच्चयमें कहते हैं
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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