SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 348
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय खण्ड' | ' [ ३२६. जाता है, ऐसा जानकर तपोधनको अपने समान या अपने से अधिक गुणधारी तपोधनका ही आश्रय करना चाहिये। जो साधु ऐसा करता है उसके रत्नत्रयमई गुणोंकी रक्षा अपने समान गुणधारीकी संगतिले इस तरह होती है जैसे शीतल पात्र में रखने से शीतल जलकी रक्षा होती है । और जैसे उसी जलमें कपूर शकर आदि ठंडे पदार्थ और डाल दिये जावें तो उस जलके शीतलपनेकी वृद्धि हो जाती है । उसी तरह निश्चय व्यवहार रत्नत्रयके साधनमें जो 1 अपनेसे अधिक हैं उनकी मंगतिसे साधुके गुणोंकी वृद्धि होती है "ऐसा भाव है " भावार्थ- म गाथामें आचार्यने स्पष्टपने इस बात को दिखा दिया है कि साधुको ऐसी संगति करनी चाहिये जिससे अपने रत्नत्रयरूप में कोई भी न आये - या तो वह धर्म वैसा ही बना रहे या उसमें बढ़वारी हो । अल्पज्ञानीका मन दूसरोंके अनुकरण में बहुत शीघ्र प्रवर्तता है । यदि खोटी संगति होती है तो उसके गुणों जाता है। यदि अच्छी संगति होती है तो उसके गुण गा होता है । वन्त्रको यदि साधारण पिटारीमें रख दिया जातो व नगर वैमा ही रहेगा । यदि सुगंधित पिटारीमें नावे में सुगंध चढ़ जायगी। इसी तरह समान गुणधारीकी मंगति अपने गुण बने रहेंगे तथा अधिक गुणधारीकी संगतिले अपने गुण बढ़ जायगे । इसलिये जिसने मोक्ष मार्गमें चना स्वीकार किया है उसको मोक्षपद पर पहुंचनेके लिये उत्तम संगति सदा रखनी योग्य है । गुणवानोंकी ही महिमा होती है । कहा है - कुलभद्राचार्यने सारसमुच्चय में ----
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy