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________________ तृताय खण्ड। [३२७ लौकिक साधु हो जाता है । ऐसा साधु मोक्षके साधनमें शिथिल पड़ जाता है इसलिये लौकिक है । अतएव ऐसे साधुकी संगति न करनी योग्य है। । , कभी कहीं धर्मके आयतनपर विघ्न पड़े तब साधु उसके निवारणके लिये उदासीन भावसे मंत्र यंत्र करें तो दोष नहीं है। अथवा धर्म कार्यके निमित्त मुहूर्त देखदें व रोगी धर्मात्माको देखकर उसके रोगका यथार्थ इलान बतावे अथवा गृहस्थोके प्रश्न होनेपर कभी कभी अपने निमित्तज्ञानसे उत्तर बतादें । यदि इन वातोंको मात्र परोपकारके हेतुसे कभी कभी कोई शुभोपयोगी साधु करे तो दोष नहीं होसक्ता है । परन्तु यदि नित्यकी ऐसी आदत बनाले कि इससे मेरी प्रसिद्धि व मान्यता होगी तो ये कार्य साधुके लिये योग्य नहीं है, ऐसा साधु साधु नहीं रहता। श्री मूलाचार समयसार अधिकारमें कहा है कि साधुको लौकिक व्यवहार नहीं करना चाहिये अब्यवहारो एक्को झाणे एयग्गमणो भवे णिरारंभो। चत्तकसायपरिग्गह पपत्तचेट्ठो असंगो य ॥ ५ ॥ भावार्थ-जो लोक व्यवहारसे रहित है व अपने आत्माको असहाय जानकर व आरंभ रहित रहकर व कषाय और परिग्रहका त्यागी होता हुआ, अत्यन्त विरक्त मोक्षमार्गकी चेष्टा करता हुआ . आत्मध्यानमें एकाग्र मन होता है वही साधु है। मुनिके सामायिक नामका चारित्र मुख्यतासे होता है। उसीके कथनमें मूलाचार षडावश्यक अधिकारमें कहा है: विरदो सवसावज तिगुत्तो पिहिदिदिओ। जीवो सामाइयं णाम संजमट्ठाणमुत्तमं ॥ २३ ॥
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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