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________________ तृतीय बएंड। [३२९ गति है । जैसा बाहरी निमित्त होता है वैसे अपने भाव बदलं जाते हैं । इसी निमित्त कारणसे बचनेके लिये ही साधुननोंको स्त्री पुत्रांदिका सम्बन्ध त्यांगना होता है। धनादि परिग्रह हटांनी पड़ती, वन गुफा आदि एकान्त स्थानों में वास करना पड़तां, नहीं स्त्री, नपुंसक व लौकिक जन आकर न धेरें । अग्निके पास जल रक्खा हो और यह सोचा जाय कि यह नल तो बहुत शीतल है कभी भी गर्म न होगां तो ऐसा सोचना विलकुल असत्य है, क्योंकि थोड़ीसी ही संगतिसे वह जल उप्ण होजायगा ऐसे ही नो साधु यह अहंकार करें कि मैं तो बड़ा तपस्वी हूं, मैं तो बड़ा ज्ञानी हूं, मैं तो बड़ा ही शांत परिणामी हूं, मेरे पास कोई भी बेठे उठे उसकी संगतिसे मैं कुछ भी भृष्ट न हूंगा वही साधु अपने समान गुणोंसे रहित भृष्ट साधुओंकी व संसारी प्राणियोंकी प्रीति व संगतिके कारण कुछ कालमें स्वयं संयम पालनमें ढीला होकर असंयमी बन जाता है। इसलिये भूलकर भी लौकिक जनोंकी संगति नहीं रखनी चाहिये। श्री मूलाचार समाचार अधिकारमें लिखा है: णो कप्पदि विरदाणं विरदीणमुवासयम्हि चिट्टोरें। तत्थ-णिसेजउवणसभायाहारभिक्खवोसरणं ॥ १८० ॥ कण्णं विधवं अंतेउरियं तह सारिणो सलिंगं वा। अचिरेणलियमाणो अववादं तत्थ पप्पोदि ॥ १८२ ॥ भावार्थ-साधुओंको उचित नहीं है कि आणिकाओंके उपाश्रयमें ठहरे । न वहां उनको बैठना चाहिये, न लेटना चाहिये, न स्वाध्याय करना चाहिये, न उनके साथ आहारके लिये भिक्षाको जाना चाहिये, न प्रतिक्रमणादि करना चाहिये, न मल मूत्रादि करना
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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