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________________ ३१८] श्रीप्रवचनसारटोका । साथ रहनेसे अपने चारित्रमें व श्रद्धानमें कमी नहीं आसक्ती है, किन्तु जो चारित्र पालनेमें शिथिलाचारी होंगे उनका श्रद्धान भी शिथिल होगा। ऐसे गुणहीनोंकी संगति यदि बढ़श्रद्धानी या बढ़चारित्री करने लगेंगे तो बहुत संभव है कि उनके प्रमादसे ये भी प्रमादी हो जावें और ये भी अपने श्रद्धान व चारित्रको भृष्ट कर डालें । यदि हीन चारित्री साधु अपनी संगतिको आवे तो पहले उनका चारित्र शास्त्रोक्त करा देना चाहिये। यदि वे अपना चारित्र ठीक न करें तो उनके साथ वंदना आदि क्रियायें न करनी , चाहिए । यदि. कोई विशेप विद्वान भी है और चारित्रहीन है तो भी वह संगतिके योग्य नहीं है। यदि कदाचित उससे कोई ज्ञानकी वृद्धि करनेके लिये संगति करनी उचित हो तो मात्र अपना प्रयोजन निकाल ले, उनके साथ आप कभी शिथिलाचारी न होवे। श्रमणका भाव यह रहना चाहिये कि मेरे परिणामोंमें समता भाव रहे, राग द्वेषकी वृद्धि न होजावे-जिन जिन कारणोंसे रागद्वेष पैदा होना संभव हो उन उन कारणोंसे अपनेको बचाना चाहिये । स्वामीने दर्शन पाहुड़में कहा है कि श्रद्धान रहितोंकी विनय नहीं करना चाहिये। जे वि पडति च तेसिं जाणंता लजगारवमयेण । तेसि पि णत्थि-वाहो पापं अणुमोयमाणाणं ॥ १३ ॥ • . भावार्थ-जो लज्जा, भय, आदि करके श्रद्धानभ्रष्ट साधुओंके पगोंमें पड़ते हैं उनके भी पापकी अनुमोदना करनेसे रत्नत्रयकी प्राप्ति नहीं है। श्री कुलभद्र आचार्यने सारसमुच्चयमें कहा है: कुसंसर्गः सदा त्याज्यो देषाणां प्रविधायकः । सगुणोऽपि जनस्तेन लघुतां याति तत्क्षणात् ॥ २६६ ॥
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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