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________________ तृतीय खण्ड। [३१३ एक ही वीतराग चारित्ररूप आराधना होती है तैसे ही भेदनयसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र रूपसे तीन प्रकार मोक्ष मार्ग है सो ही अभेद नयसे एक श्रमणपना नामका मोक्ष मार्ग है जिसका अभेद रूपसे मुख्य कथन " एयग्गगदो समणो" इत्यादि चौदह गाथाओंमें पहले ही किया गया। यहां मुख्यतासे उसीका भेदरूपसे शुभोपयोगके लक्षणको कहते हुए व्याख्यान किया गया इसमें कोई पुनरुक्तिका दोष नहीं है ॥ ८६ ॥ इस प्रकार समाचार विशेषको कहते हुए चोथे स्थलमें गाथाएं आठ पूर्ण हुई। उत्थानिका-आगे कहते हैं कि जो स्वयं गुणहीन होता हुआ दूसरे अपनेसे जो गुणोंमें अधिक हैं उनसे अपना विनय चाहता है उसके गुणोंका नाश हो जाता है गुणदोधिगस्स विणयं पडिच्छगो जोवि होमि सगणोचि । होजं गुणाधरो जदि सो होदि अणंतसंसारी ।। ८७ ।। गुणतोऽधिकस्य विनयं प्रत्येपको योपि भवामि श्रमण इति । भवन् गुणाधरो यदि स भवत्यनन्तसलारी ॥ ८७ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ-(यदि) यदि (जोवि) जो कोई भी (समणोत्ति होमि) मैं साधु हूं ऐसा मानके ( गुणदोधिगस्स ) अपनेसे गुणोंमें जो अधिक है उसके द्वारा (विणयं) अपना विनय (पड़िच्छगो) चाहता है (सो) वह साधु (गुणाघरो) गुणोंसे रहित (होज्ज) होता हुआ ( अणंतसंसारी होदि) अनन्त संसारमें भ्रमण करनेवाला होता है। . विशेषार्थ-मैं श्रमण हूं इस गर्वसे-जो साधु अपनेसे व्यवहार निश्चय रत्नत्रयके साधनमें अधिक है-उससे अपनी वन्दना
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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