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________________ ३१०) श्रीप्रवचनसारटोका । मार्गमें चलते हुए साधु को देखकर इर्पाभावसे दोय ग्रहण करे तो वह प्रगटपने चारित्र भृष्ट हो जाता है। पीछे अपनी निन्दा करके उस भावको छोड़ देता है तो उसका दोष मिट जाता है अथवा कुछ काल पीछे इस भावको त्यागता है तौभी उसन्न दोष नहीं रहता है, परन्तु यदि इसी ही निन्दा रूप भावको हद करता हुआ तीन कषाय भावसे मर्यादाको उलंधकर वर्तन करता रहता है तो वह अवश्य चारित्र रहित होजाता है । बहुत शास्त्र ज्ञाताओंको थोड़े शास्त्रज्ञाता साधुओंका दोष नहीं ग्रहण करना चाहिये और न अल्पशास्त्री साधुओंको उचित है कि थोड़ासा पाठ मात्र जानकर बहुत शास्त्री साधुओंका दोष नहण करें, किंतु परस्पर कुछ भी सारभाव लेकर स्वयं शुद्ध स्वरूपकी भावना ही करनी चाहिये, क्योंकि रागद्वेपके पैदा होते हुए न बहुत शास्त्र ज्ञाताओंको शास्त्रका फल होता है न तपस्वियोंको तपका फल होता है। ___ भावार्थ-इस गाथाका यह भाव है कि साधुओंको दूसरे साधुओंको देखकर आनन्द भाव लाना चाहिये तथा उनकी यथायोग्य विनय करनी चाहिये । जो कोई साधु अपने अहंकारके वश दूसरे जिन शासनके अनुकूल चलनेवाले साधुके साथ उपभाव रखके आर प्रतिष्ठा करना तो दूर रहो, उनके चारित्रकी अनुमोदना करना तो दूर से उल्टी उनकी वृथा निन्दा करता है वह साधु स्वयं चारित्रसे रहित हो जाता है। धर्मात्माओंको धर्मात्माओंके साथ प्रेमभाव, आदर भाव रखके परस्पर एक दूसरेके गुणोंकी अनुमोदना करनी चाहिये-तथा वीतरागभावमें रत हो शुद्ध स्वभावकी भावना करनी चाहिये । जिन साधुओंकी
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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