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________________ तृतीय खण्ड । [ ३०७ अन्वय सहित सामान्यार्थ : - ( संजमतवसुत्तसंपजुतोवि ) संयम, तप तथा शास्त्रज्ञान सहित होनेपर भी ( नदि ) जो कोई (जिणक्खादे) जिनेन्द्र द्वारा कहे हुए (आदपधाणे अत्थे) आत्माको मुख्यकरके पदार्थोंको (ण सद्दहदि) नहीं श्रद्धान करता है (समणोत्तिणहवदि मदो ) वह साधु नहीं हो सक्ता है ऐसा माना गया है। विशेषार्थ - आगम में यह बात मानी हुई है कि जो कोई साधु संयम पालता हो, तप करता हो व शास्त्रज्ञान सहित भी हो, परन्तु जिसके तीन मूढ़ता आदि पच्चीस दोषरहित सम्यक्त न हो अर्थात् जो वीतराग सर्वज्ञ द्वारा प्रगट दिव्यध्वनिके कहे अनुसार गणधर देवोंद्वारा ग्रन्थोंमें गूंथित निर्दोष परमात्माको लेकर पदार्थ समूहकी रुचि नहीं रखता है, वह श्रमण नहीं है । भावार्थ-साधुपद हो या श्रावकपद हो दोनोंमें सम्यक्दर्शन प्रधान है। सम्यक्त विना ग्यारह अंग, दम पूर्वका ज्ञान भी मिथ्या ज्ञान है, तथा घोर मुनिका चारित्र भी कुचारित्र है । वही श्रमण है जिसको अंतर से आत्माका अनुभव होता और जो जीव अजीव, आश्रव, बंध, संवर, निर्जरा मोक्ष, पुण्य, पाप इन नौ पदार्थोके स्वरूपको निनागमके अनुमार निश्चय और व्यवहार के द्वारा यथार्थ जानकर श्रद्धान करता है । भावके विना मात्र द्रव्यलिंग एक नाटकके पात्रकी तरह भेपमान है । वास्तवमें सच्चा ज्ञान आत्मानुभव है व सच्चा चारित्र स्वरूपाचरण है । इन दोनोंका होना सम्यग्दर्शनके होते हुए ही संभव है । सम्यक्तके बिना मात्र बाहरी ज्ञान व चारित्र होता है । सारसमुच्चयमें श्री कुलभद्र आचार्य कहते हैं-
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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