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________________ तृतीय स्खण्ड। [२६५ धृतिभावनया युक्ता शुभभावनयान्विताः । तत्वार्थाहितचेतस्कास्ते पात्रं दातुरुत्तमाः ॥ १८ ॥ भावार्थ-जो परिग्रह आरम्भसे रहित हैं, धीर हैं. रागद्वेपादि मलोंसे शून्य है, शान्त हैं, जितेन्द्रिय हैं, तपरूपी आभूषणको रखनेवाले हैं, मुक्तिकी भावनामें तत्पर हैं, मन वचन काय योगोंकी गुप्तिनें लीन हैं. चारित्रवान हैं, ध्यानी हैं, दयावान हैं, धर्वकी भावनासे युक्त हैं, शुभ भावनाके प्रेमी हैं, तत्वाथोके विचारमें प्रवीण हैं वे ही दातारके लिये उत्तम पात्र हैं ॥ ८ ॥ उस्थानिका-आगे और भी उत्तम पात्र तपोधनोंका लक्षण अन्य प्रकारसे कहते हैं, अमुभोवयोगरहिदा मुद्धवजुत्ता मुहोवजुत्ता वा । . णियारयति लोग तेमु पसत्यं लहदि भत्तो ।। ८१ ॥ अशुभोपयोगरहिताः शुद्धोपयुक्ता शुभोपयुका वा। निस्तारयन्ति लोकं तेषु प्रशस्तं लभते भक्तः ॥ ८ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ-(अशुभोवयोगरहिदा) नो अशुभ उपयोगसे रहित हैं, (सुद्धवजुत्ता) शुद्धोपयोगमें लीन हैं (वा सुहोवजुत्ता) या कभी शुभोपयोगमें वर्तते हैं वे (लोगं णित्यारयति) जगतको तारनेवाले हैं (तेसु भत्तो) उनमें भक्ति करनेवाला (पसत्य) उत्तम पुण्यको (लहदि) प्राप्त करता है । विशेपार्थ-जो मुनि शुद्धोपयोग और शुभोपयोगके धारी हैं वे ही उत्तम पात्र हैं। निर्विकल्प समाधिक बलसे नत्र शुभ और अशुभ दोनों उपयोगोंसे रहित हो जाते हैं तब वीतराग चारित्ररूप शुद्धोपयोगके धारी होते हैं । इस भावमें जब ठहरनेको
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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