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________________ __ तृतीय खण्ड। [२८६ मोह छोड़कर उनकी सेवा करते हैं । इसीसे भावोंमें कठोरता नहीं होती है । सेवाके कार्यमें लगे हुए जो भावोंकी कोमलता होती है वह कुछ पुण्य भी बांध देती है। वास्तवमें जो मनुष्य धृतरमण, वेश्यागमन, मद्यपान, मांसाहार आदि पाप कर्मोमें आधीन हैं वे ही यदि इनको छोड़कर अपने २ अयथार्थ धर्मकी सेवामें लग जावें तो उनके पहलेकी अपेक्षा अवश्य कषाय मंद होगी, इसी कारण पहलेके पापरूप भावोंसे जब नरक या पशुगति पाते हैं तब इन अल्प पुण्यरूप भावोंसे देव या मनुष्यगति पाते हैं। इनके विरुद्ध जो सच्चे देव गुरु धर्मके भक्त हैं वे बहुत अधिक पुण्य बांधकर उत्तम देव तथा मनुष्य होते हैं। इतना ही नहीं जो सुदेवादिके भक्त हैं वे मोक्षमार्गी हैं, परन्तु जो कुदेवादि भक्त हैं वे संसारमार्गी हैं। क्योंकि जिनकी भक्ति करता है वे संसारमार्गी हैं। ___ यहांपर आचार्यने रञ्चमात्र भी पक्षपात न कर वस्तुका यथार्थ स्वरूप बतला दिया है कि मिथ्यात्त्व होते हुए - हुए भी जहां परोपकार या सेवाभाव है वहां कुछ मंदकषाय है। जितने अंश कषाय मंद है वही पुण्यवंधका कारण है । दूसरा अर्थ गाथाका यह भी लिया जासक्ता है कि जो जैन साधु होकरके भी बाहरी ठीक आचरण पालते हैं परन्तु मिथ्यादृष्टी हैं-जिनके परमार्थ आत्माका व परमात्माका अनुभव नहीं है व भीतर मोक्षके वीतराग अतीन्द्रियसुखके स्थानमें इंद्रियजनित बहुत सुखकी लालसा है, ऐसे सम्यक्तरहित कुपात्रोंको जो दान किया जावे वह नीच देवोंमें व कुभोगभूमिके मनुष्योंमें फलता है। श्री तत्वार्थसारमें अमृ• तचंद्र महाराजने लिखा है:
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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