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________________ तृतीय खण्ड । [ २८३ परमकरुणामय है। श्रावकका चारित्र भी साम्यभावकी उपासना रूप है, और दयाधर्मसे शोभायमान है। इसलिये सर्वज्ञ कथित निश्चयधर्म में भले प्रकार आरूढ़ होनेसे उसी भवसे मोक्ष होसक्ती है, परन्तु जो भले प्रकार - जितना चाहिये उतना - निश्चयधर्म में नहीं ठहर सक्ते उनको निश्चय और व्यवहार धर्म दोनों साधने पड़ते हैं, इससे वे अतिशयकारी पुण्य बांध उत्तम देवगतिको पाकर फिर कुछ भवोंमें मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं । इसलिये वास्तवमें जिनेन्द्र I कथित ही मार्ग सच्चा मोक्षमार्ग है । अल्प मिथ्याज्ञानियोंने जो धर्म मार्ग चलाए हैं वे यथार्थ नहीं हैं; क्योंकि उनमें आत्मा, परमात्मा, पुण्य पाप, मुनि व गृहस्थके आचरणका यथार्थ स्वरूप नहीं बतलाया गया है । जिसकी परीक्षा प्रमाणसे की जा सक्ती है । न्यायशास्त्र में जो युक्ति दी हैं वे इसीलिये हैं कि जिनसे यथार्थ पदार्थकी परीक्षा होसके | आत्मा ब्रह्मा अंश मानकर फिर अशुद्ध मानना अथवा सर्वथा नित्य मानना व सर्वथा अनित्य मानना, अथवा सर्वथा शुद्ध मानना व सर्वथा अशुद्ध मानना, व उसको कर्ता न मानकर केवल भोक्ता मानना, आत्मा व अनात्माको परिणाम स्वरूप न मानना, केवल एक आत्मा ही मानकर व केवलएक पुद्गल ही मानकर बन्ध व मोक्षकी व्यवस्था करना, अहिंसा के स्वरूपको यथार्थ न समझकर हिंसा करके भी पुण्यबन्ध मानना. अथवा हिंसासे मोक्ष बताना अथवा ज्ञानमात्रसे या श्रद्धाभावसे या आचरण मात्रसे मुक्ति होना कहना, गुण और गुणीको किसी समय पृथकू मान लेना फिर उनका जुड़ना मानना, दूसरेके दुःखी
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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