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________________ तृतीय खण्ड । [११, जनोंसे कैसे होसक्ता है ? जब इस प्राणीका जीव शरीरसे अलग होजाता है तब सब बन्धुजन उस जीवको नहीं पकड़ सक्ते जो शरीरको छोड़ते ही एक, दो, तीन समयके पीछे ही अन्य शरीरमें पहुंच जाता है किन्तु वे विचारे उस शरीरको ही निर्जीव जानकर बड़े आदरसे शरीरको दग्धकर संतोप मान लेते हैं। उस समय सब वन्धुजनोंको लाचार हो संतोप करना ही पड़ता है । एक दिन मेरे शरीरके लिये भी वही समय आनेवाला है । मैं इस शरीरसे तपस्या करके व रत्नत्रयका साधन करके उसी तरह मुक्तिका उपाय करना चाहता हूं जिस तरह प्राचीनकालमें श्री रिपभादि तीर्थंकरोंने व श्रीवाइबलि, भरत, सगर, राम, पांडवादिकोंने किया था। इसलिये मुझे आत्म कार्यके लिये सन्मुख जानकर आपको कोई विषाद न करना चाहिये किन्तु हर्ष मानना चाहिये कि यह शरीर एक उत्तम कायेके लिये तय्यार हुआ है । आपको मोहभाव दिलसे निकाल देना चाहिये क्योंकि मोह संसारका चीज है। मोह कर्म बन्ध करनेवाला है। वास्तवमें मैं तो आत्मा हूं उससे आपका कोई सम्बन्ध नहीं है। हां जिस शरीर रूपी कुटीमें मेरा आत्मा रहता है उससे आपका सम्बन्ध है-आपने उसके पोषणमें मदद दी है सो यह शरीर जड़ पुद्गल परमाणुओंसे वना है, उससे मोह करना मूर्खता है। यह शरीर तो सदा बनता, व बिगड़ता रहता है। मेरे आत्मासे यदि आपकों प्रेम है तो जिसमें मेरे आत्माका हित हो उस कार्यमें मेरेको उत्साहित करना चाहिये। मैं मुक्तिसुन्दरीके वरनेको मुनिदीक्षाके अश्वपर आरूढ़ हो ज्ञान संयम तपादि वरातियोंको साथ लेकर जानेवाला हूं। इस समय आप सबको इस मेरी आत्माके यथार्थ विवाह के समय मंगलाचरणरूप
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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