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________________ mmam तृतीय खण्ड। [२७३ एषा प्रशस्तभूता श्रमणानां वा पुनर्गृहस्थानाम् । चर्या परेति भणिता तयैव परं लभते सौख्यम् ॥ ५ ॥ अन्वय सहित सामान्यार्थ-(समणाणं) साधुओंको (एसा) यह प्रत्यक्ष (पसत्थभूता चरिया) धर्मानुराग रूप चर्या या क्रिया होती है ( वा पुणो घरत्थाणं ) तथा गृहस्थोंकी यह क्रिया (परेत्ति भणिदा) सबसे उत्कृष्ट कही गई है ( ता एव ) इसी ही चासे साधु या गृहस्थ ( परं सोक्ख ) उत्कृष्ट मोक्षसुख ( लहदि ) प्राप्त करता है। विशेषार्थ-तपोधन दूसरे साधुओंका वैय्यावृत्य करते हुए अपने शरीरके द्वारा कुछ भी पापारम्भ रहित व हिंसारहित वैयावृत्य करते हैं तथा वचनोंके द्वारा धर्मोपदेश करने हैं। शेष औषधि अन्नपान आदिकी सेवा गृहस्थोंके आधीन है; इसलिये वावृत्यरूप ध गृहथोंका मुख्य है, किन्तु साधुओंका गौण है । दूसरा कारण यह है कि विकाररहित चैतन्यके चमत्कारकी भावनाके विरोधी तथा इंद्रिय विषय और कषायोंके निमित्तसे पैदा होनेवाले आत और रौद्रध्यानमें परिणमनेवाले गृहस्थोंके आत्माके आधीन जो निश्चय धर्म है उसके पालनेको उनको अवकाश नहीं है, परन्तु यदि वे गृहस्थ वयावृत्यादि रूप शुभोपयोग धर्मसे वर्तन करें तो वे खोटे ध्यानसे बचते हैं तथा साधुओंकी संगतिसे गृहस्थोंदो निश्चय तथा व्यवहार मोक्षमार्गके उपदेशका लाभ होजाता है. इसीसे ही चे गृहस्थ परंपरा निर्वाणको प्राप्त करते हैं, ऐसा गाथाना अभिप्राय है। भावाय-इस गाथामें यह स्पष्ट कर दिया है कि माथुओंकी ५८
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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