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________________ तृतीय खण्ड। [२६७. वह विषय कषायादि अशुभ कार्योंमें फँस जायगा । इसलिये इस गाथाका यह भाव है कि केवल धर्म प्रेमवश विना अपने स्वार्थके शुभोपयोगी साधुओंको संघका उपकार करना चाहिये । संघका उपकार है सो ही धर्मका उपकार है। ____ मुनिगण अपने शास्त्रोक्त बचनोंसे सदा उपकार करते रहते हैं। कहा है अनगार धर्मामृत चतुर्थ अ०में-- साधुरनाकरः प्रोद्ययापीयूषनिर्भरः। समये सुमनस्तृप्त्यै वचनामृतमुद्रिरेत् ॥ ४३ ॥ मौनमेव सदा कुर्यादायः खार्सेकसिद्धये । स्वैकसाध्ये पराणे वा ब्रूयात्वार्थाविरोधतः ॥ ४४ ॥ भावार्य-साधु महाराज जो समुद्रके समान गंभीर हैं तथा उछलते हुए दयारूपी अमृतसे पूर्ण हैं, सज्जनोंके मनकी तृप्तिके लिये अवसर पाकर आगमके सम्बन्धरूप बचनरूपी अमृतकी वर्षा करें। साधु महाराज अपने स्वार्थकी जहां सिद्धि हो उस अवसरपर सदा ही मौन रक्खें । जैसे अपने भोजनपानादिके सम्बन्धमें अपनी कुछ सम्मति न देवें, परन्तु जहां जहां अपने द्वारा दूसरोंका धर्मकार्य व हित सिद्ध होता हो तो अपने आत्मकार्यमें विरोध न डालते हुए अवश्य बोलें या व्याख्यान देवें। वहीं यह भी कहा है। धर्मनाशे क्रियाध्वंसे खसिद्धान्तार्थविप्लवे। अपृष्टैरपि वक्तव्यं तत्वरूपप्रकाशने ॥ भावार्थ-जहां धर्मका नाश होता हो, चारित्रका विगाड होता हो, जैन सिद्धांतके अर्थका अनर्थ होता हो, वहां वस्तुका स्वरूप प्रकाश करनेके लिये विना प्रश्नों के भी बोलना चाहिये । साधु महाराज परम सम्यग्दृष्टी होते हैं। उनके मनमें प्रभावना
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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