SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 271
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५२] श्रीप्रवचनसारटोका। उपवास रखने, ऊनोदर करने, प्रतिज्ञा कर भिक्षाके लिये जाने, रस त्यागने, एकांतमें बैठने सोनेका विकल्प करने, कायक्लेशतपका विचार करने, प्रायश्चित्त लेने, विनय करने, वैयावृत्त्य करने, शास्त्र पढ़ने. शरीरसे ममता त्यागनेका भाव करने, ध्यानके अभ्यासके लिये प्रयत्न करने आदि निश्चय तपके साधनोंमें शुभोपयोग ही काम करता है । यद्यपि शुभोपयोग बन्धका कारक है, त्यागने योग्य है तथापि शुद्धोपयोग रूप इच्छित स्थान पर ले जानेको सहकारी मार्ग है इसलिये ग्रहण करने योग्य है । जब साक्षात् शुद्धोपयोग होता है तव शुभोपयोग और उस सम्बन्धी सब कार्य स्वयं छूट जाते हैं । साधुओंका कर्तव्य इस तरह श्री मूलाचारनीके समाचार अविकारमें बताया है । जैसे--- थाएसे एतं सहसा दठूण संजदा सव्वे । बच्छल्लाणालंगहपणमणहेढुं समुहति ॥ १६० ॥ पबुग्गमणं फिच्चा सत्पदं अण्णमण्णपणमं च। पाहुणकरणोयकदे तिरयणसंपुच्छणं कुजा ॥ १६१ ॥ भावार्थ-दूरसे विहार करने हुए आते हुए साधुको देखकर शीघ्र सर्व संयमी मुनि खडे होते हैं इसलिये कि वात्सल्य भाव बढ़े, सर्वज्ञकी आज्ञा पालन की जावे तथा उनको अपनाया जावे व प्रणाम किया जावे । फिर सात कदम आगे जाकर परस्पर वंदना प्रति वंदना की जाती है तथा आगन्तुकके साथ यथायोग्य व्यवहार करके अर्थात् योग्य बैठनेका स्थान आदि देकर उनके ' रत्नत्रयकी कुशल पूछी जाती है। गच्छे वेजावचं गिलाणगुरुवालवुड्ढसेहाणं। जहजोगं काव्यं सगसत्तीए पयत्तेण ॥ १७४ ॥
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy