SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 269
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५० ] श्रीप्रवचनसारटोका । ___ भावार्थ-आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, प्रवर्तक, गणधर इन पांच महान साधुओंकी तथा बालक, वृद्ध, रोगी व थके हुए साधुओंकी व गच्छन्नी सर्वशक्ति लगाकर वयावृत्य करना कहा गया है ।। ६७ ॥ उस्थानिका-आगे शुभोपयोगी मुनियोंकी शुम प्रवृत्तिको और भी दर्शाने हैं। दंगणयंत्रणेहिं अभुटाणाणुगमनपडिवत्ती। सपणेमु समावणओ प मिंदिया रायचरियम्मि ॥३८॥ चन्दननमस्करणाभ्यामभ्युत्थानानुगमनप्रतिपत्तिः। श्रमणेषु श्रमापनयो न निन्दिता रागचायाम् ॥ ६८ ॥ अन्वय सहित सामान्पार्थ-(रागचरियम्मि) शुभ रागरूप आचरणमें अर्थात् सरागचारित्रकी अवस्थाने (वंदणणमंसणेहिं ) वंदना और नमस्कार के साथ २ ( अन्मुट्ठाणाणुगमणपडिवत्ती) आते हुए साधुको देखकर उठ खड़ा होना, उनके पीछे २ चलना आदि प्रवृत्ति तथा (समणेषु) साधुओंके सम्बन्धमें उनका (ममावणओं) खेद दूर करना आदि क्रिया (ण निंदिया) निषेव्य या वर्जित नहीं है। विशेषार्थ-पंच परमेष्ठियोंको वंदना नमस्कार व उनको देखकर उठना, पीछे चलना आदि प्रवृत्ति व रत्नत्रयी भावना करनेसें प्राप्त जो परिश्रमका खेद उसको दूर करना आदि शुभोपयोग रूप प्रवृत्ति रत्नत्रयकी आराधना करनेवालोंमें करना उन साधुओंके लिये मना नहीं है किन्तु करने योग्य हैं, जो साधु शुद्धोपयोगके साधक शुभोपयोगनें ठहरे हुए हैं।
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy