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________________ · २४४ ] श्रीप्रवचनसारटीका । कारण से होता है । जिनके कषायों की कलुषता या चिक्कणता नहीं होती है उनके कर्मोंका बंध नहीं होता है । शुद्धोपयोग बंधका नाशक है, बंधका कारक नहीं है; परन्तु जो साधु हर समय शुद्धोपयोग में ठहरनेको असमर्थ हैं उनको अपवाद मार्गरूप शुभो - पयोग में वर्तना पडता है। शुद्धोपयोग में चढनेकी भावना सहित शुभौपयोगमें वर्तनेवाला भी साधुपदसे गिर नहीं सक्ता है, परन्तु उसको व्यवहार नयसे साधु कहेंगे, क्योंकि वहां पुण्य कर्मका आश्रव व बंध होता है । निश्चयसे साधुपना वीतराग चारित्र है जहां बंध न हो । जगतक अरहंतपढ़की निकटता न होवे तबतक निश्चय व्यवहार दोनों मागकी सहायता लेकर ही साधु आचरण कर सक्ता है । यद्यपि शुभोपयोगी भी साधु है परंतु वह शुद्धोप योगकी अवस्था की अपेक्षा हीन है । तात्पर्य यह है कि साधुको शुभोपयोगमें तन्मय न होना चाहिये क्योंकि उसमें आश्रव होता है परन्तु सदा ही शुद्धोपयोग में आरूढ होनेका उद्यग करना चाहिये । एक अभ्यासी साधु सातवें व छठे गुणस्थानों में बारबार आया जाया करता है । सातका नाम अप्रमत्त है इसलिये वहां कपायोंका ऐसा मंद उदय है कि साधुधी बुद्धिमें नहीं झलकता है, इसलिये वहां शुद्धोपयोग कहा है परन्तु प्रमत्तविरत नाम छटे. गुणस्थान में संज्वलन कषायका तीव्र उदय है इसलिये प्रगट शुभ राग भाव परिणामों में होता है । तीर्थंकरकी भक्ति, शास्त्रपटन यदि कार्यों में शुभ राग होनेसे शुभोपयोग होता है । इसलिये यहां पुण्य कर्मका बंध है । यद्यपि जहां तक रुपयोंका कुछ भी अंश उदयमें है वहांक
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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