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________________ २३० ] श्रीप्रवचनसारटोका। निर्विकल्प समाधि उससे उत्पन्न जो निर्विकार परम आल्हादरूप एक लक्षणधारी सुखरूपी अमृत उसमें परिणमन स्वरूप जो परम समताभाव सो ही उस तपस्वीका लक्षण है जो परमागमका ज्ञान, तत्वार्थका श्रद्धान, संयमपना इन तीनोंको एक साथ रखता हुआ निर्विकल्प आत्मज्ञानमें परिणमन कररहा है ऐसा जानना चाहिये। ___ भावार्थ-इस गाथामें आचार्यने यह बता दिया है कि साधु वही है जो इस जगतके चारित्रको नाटकके समान देखता है। जैसे नाटकमें हर्ष विपादके अनेक अवसर आते हैं । ज्ञानी जीव उन सबको एक दृश्यरूप देखता हुआ उनमें कुछ भी हर्प विषाद नहीं करता है । साधु महाराज सिवाय अपनी आत्माकी विभूतिके और कोई वस्तु अपनी नहीं जानते हैं । आत्माका धन शुद्ध दर्शन, ज्ञान, चारित्र सुखादि है, उसको न कोई शत्रु बिगाड़ सक्ता न कोई मित्र उसे देसक्ता । इस तरह अपने स्वधनमें प्रेमालु होते हुए संसार शरीर भोगोंसे अत्यन्त उदास होते हैं । तब यदि कोई उनका उपकार करे तो उससे हित नहीं जनाते व कोई विगाड़ करे तो उससे द्वेष नहीं रखते हैं। सांसारिक साता व असाताको वह कर्मोदय जान न सातामें सुख मानते न असातामें दुःख मानते, कोई उनकी प्रशंसा करे तो उससे राजी नहीं होते कोई उनकी निन्दा करे तो उसमे नाराज नहीं होते । यदि कोई सुवर्णके ढेर उनके आगे करदे तो वह उससे लोभी नहीं होते या कोई कंकड़ पत्थरके ढेर कर दे तो उससे घृणा नहीं करते । यदि आयु कर्मानुसार जीते रहे तो कुछ हप नहीं और यदि आयु कर्मके क्षयसे मरण होजाय तो कुछ विवाद नहीं । इस तरह समताभाव
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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