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________________ तृतीय खण्ड। [२०५ जिन आगमको स्याद्वाद भी कहते हैं। क्योंकि इसमें पदाथोंके भिन्नर स्वभावोंको भिन्नर अपेक्षाओंसे बताया गया है । श्री समंतभद्राचार्य आप्तमीमांसामें स्याद्वादको केवलज्ञानके समान बताते हैं, जैसे स्याद्वाद केवलशाने सर्वतत्वप्रकाशने। भेदः साक्षादसाक्षाच्च गवस्त्वन्यतमं भवेत् ॥ १०५ ॥ भावार्थ-स्याद्वाद और केवलज्ञानमें सर्व तत्वोंके प्रकाशनेकी अपेक्षा समानता है, केवल प्रत्यक्ष और परोक्षका ही भेद है। यदि दोनोंमेंसे एक न होय तो वस्तु ही न रहे । जो पदार्थ केवलज्ञानसे प्रगट होते हैं उन सबको परोक्षरूपसे शास्त्र बताता है। इसलिये सर्व द्रव्य गुण पर्यायोंको दोनों बताते हैं केवलज्ञान न हो तो स्याद्वादमय श्रुतज्ञान न हो-और यदि स्याद्वादमय श्रुतज्ञान न हो तो केवलज्ञान सवको जानता है यह वात कौन कहे। जो जिनवाणीसे तत्वोंको निश्चय तथा व्यवहार नयसे ठीक २ समझ लेता है वह ज्ञानापेक्षा परम संतुष्ट होजाता है। जैसे केव.लज्ञानी ज्ञानापेक्षा निराकुल और संतोषी हैं वैसे शास्त्रज्ञानी भी निराकुल और संतोषी होनाता है। मूलाचार अनागार भावनामें. कहा है कि साधु ऐसे ज्ञानी होते हैं सुदरयणपुण्णकण्णा हेउणयविसारदा विउलवुद्धी। णिउणत्थ सत्थकुसला परमपदवियाणया समणा ॥६॥ भावार्थ-श्रुतरूपी रत्नसे जिनके कान भरे हुए हैं अर्थात् जो शास्त्रके ज्ञाता हैं, हेतु और नयके ज्ञाता पंडित हैं, तीव्र बुद्धि वाले हैं, अनेक सिद्धांत व्याकरण, तर्क, साहित्यादि शास्त्रोंमें कुशल
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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