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________________ तृतीय खण्ड। [१६७ विशेपार्थ-" गुणजीवापज्जत्ती पाणा सण्णा य मग्गणाओ य, उवओगोवि य कमसो वीसं तु परूवणा मणिदा" श्री गोमटसारकी इस गाथाके अनुसार जिसका भाव यह है कि इस गोमटसार जीवकांडमें २० अध्याय हैं, १ गुणस्थान, २ जीवसमास, ३ पर्याप्ति, ४ प्राण, ५ संज्ञा, ६ गतिमार्गणा, ७ इंद्रिय मा०, ८ काय मा०, ९ योग मा०, १० वेद मा०, ११ कषाय मा०, १२ ज्ञान मा०, १३ संयम मा०, १४ दर्शन मा०, १५ लेश्या मा०, १६ भव्य मा०, १७ सम्यक्त मा०, १८ संज्ञिमा०, १९ आहार, २० उपयोगसे जिसने व्यवहारनयसे आगमको नहीं जाना तथा-- " भिण्णउ जेण ण जाणियउ णियदेहपरमत्यु । सो अद्दउ अवरदाहं किं वादरिसइपत्यु ॥ इस दोहा सूत्रके अनुसार जिसका भाव यह है कि जिसने अपनी देहसे परमपदार्थ आत्माको भिन्न नहीं नाना वह आत ध्यानी किस तरह अपने आत्म पदार्थको देख सक्ता है, समस्त आगममें सारभूत अधात्म शास्त्रको नहीं जाना वह पुरुष रागादि दोषोंसे रहित तथा अव्यायाध सुख आदि गुणोंके धारी अपने आत्म द्रव्यको भाव कर्मसे कहने योग्य राग द्वेषादि नाना प्रकार विकल्प जालोंसे निश्चयनयसे । भेदको नहीं जानता है और न कर्मरूपी शत्रुको विध्वंश करनेवाले अपने ही परमात्म तत्वको ज्ञानावरण आदि द्रव्य कर्मोंसे जुदा जानता है और न शरीर रहित शुद्ध आत्म पदार्थको शरीरादि नोकर्मोंसे जुदा समझता है। इस तरह भेद ज्ञानके न होनेपर वह शरीरमें विराजित अपने शुद्धात्माकी भी रुचि नहीं रखता है और न उसकी भावना सर्व रागादिका त्याग करके करता है, ऐसी दशामें
SR No.009947
Book TitlePravachan Sara Tika athwa Part 02 Charitratattvadipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages384
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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